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प्रस्तुत संस्करण का महत्त्व
प्रस्तुत प्रन्थ ' वकोक्तिजीवित' को सर्वप्रथम डा० सुशीलकुमार डे ने सन् १९२३ में सम्पादित किया जिसमें उन्होंने केवल दो उन्मेषों को सम्पादित किया था । तदनन्तर इसका द्वितीय संस्करण उन्होंने १९२८ में प्रकाशित किया । उसमें उन्होंने पहले के प्रकाशित प्रन्थ से भागे तृतीय उन्मेष के कुछ अंश को संम्पादित किया । साथ ही इसके आगे के शेष भाग का, जिसे कि वे पाण्डुलिपि के अत्यन्त भ्रष्ट होने के कारण पूर्णतः सम्पादित करने में असमर्थ थे, केवल संक्षिप्त विवेचन ही प्रस्तुत किया। इसका तृतीय संस्करण पुनः सन् १९६१ में प्रकाशित हुआ । इसमें द्वितीय संस्करण की अपेक्षा कोई परिवर्धन नहीं हो सका। दो उन्मेष और तृतीय का कुछ अंग सम्पादित था, उसके आगे के शेष भाग का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया गया है ।
डा० डे द्वारा सम्पादित 'वकोक्ति- जोवित' के इन तोन संस्करणों के अतिरिक्त डा० नगेन्द्र ने आचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्तशिरोमणि की हिन्दी व्याख्या एवं अपनी भूमिका से संवलित 'हिन्दी वक्रोक्तिजीवित' नामक प्रन्थ 'हिन्दी अनुसन्धान परिषद् प्रन्थमाला' की ओर से सन् १९५५ में सम्पादित किया ।
क्योंकि हमने 'संस्कृत काव्य शास्त्र में वकोक्ति-सम्प्रदाय का उद्भव और विकास' नामक विषय पर शोधकार्य करना प्रारम्भ किया, फलतः हमें साहित्य शास्त्र के अन्य ग्रन्थों के साथ हो साथ 'वकोक्तिजीवित' के विशेष अध्ययन करने का अवसर प्राप्त हुआ। इस ग्रन्थ का अध्ययन करते समय हमने डा० डे० के तृतीय संस्करण एवं डा० नगेन्द्र के प्रथम संस्करण दोनों का सहारा लिया । जहाँ तक डा० डे के संस्करण की बात रही उससे तो हमें पर्याप्त सहायता प्राप्त हुई। क्योंकि जितना अंश नम्पादित या उससे अतिरिक भाग का कम से कम संक्षिप्त विवेचन उपलब्ध था । वहाँ उन्होंने मूल पाण्डुलिपि के स्थान पर अपनी ओर से पाठ परिवर्तित किया था वहाँ पाण्डुलिपि के पाठ को पादटिप्पणी में यथातथ रूप में उद्धृत कर दिया था। इससे पाठों के विषय में अपनो उलझनें सुलझाने में बड़ी सहायता प्राप्त हुई ।
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परन्तु डा• मगेन्द्र एवं प्राचार्य विश्वेश्वर जी ने जिस वक्रोक्तिजीवित को प्रकाशित किया उसका क्या आधार था। इसका उन्होंने कोई निर्देश नहीं किया । जैसा कि महामहोपाध्याय डा० पाण्डुरशवामन काणे ने उसके विषय में लिखा है :