SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६३ ) “सर्वसम्पत्परिस्पन्दसम्पाद्यं सरसात्मनाम् । अलौकिक चमत्कारकारि काव्यैकजीवितम् ॥” में आये परिस्पन्द का व्याख्यान करते हैं---सर्वस्योपादेय राशेर्या सम्पत्तिरनवद्यताकाष्ठा तस्याः परिस्पन्दः स्फुरितत्वं तेन सम्पाद्यं निष्पादनीयम् ।" यहाँ स्पष्ट हो परिस्पन्द का प्रयोग स्फुरितत्व के पर्याय रूप में स्पन्द के दार्शनिक अर्थ के साथ कुन्तक द्वारा दिए हुए अर्थों की सङ्गति है। ' स्पन्द' के कुन्तक द्वारा किए गए विभिन्न शब्दों के पर्याय रूप में प्रयोगों का विचार करते हुए हमने देखा कि उन्होंने 'स्पन्द' या 'परिस्पन्द' का प्रयोग मुख्यतः ( १ ) स्वभाव, ( २ ) धर्म ( ३ ) व्यापार, ( ४ ) बिलसित, ( ५ ) स्वरूप तथा ( ६ ) स्फुरितस्व के पर्याय रूप में किया है। उनके ये सभी प्रयोग 'स्पन्द' के दार्शनिक अर्थों से पूर्णतः सङ्गत हैं। क्योंकि- ( १ ) स्पन्द वस्तुतः शक्ति का स्वभाव ही है । जैसे हृदय का स्पन्द हृदय का स्वभाव ही होता है, अन्यथा स्पन्द की समाप्ति पर भी हृदय की जीवित सत्ता होनी चाहिए, पर ऐसा होता नहीं । अतः सिद्ध हुआ कि हृदय का रूपन्द उसका स्वभाव ही है । इसी प्रकार शक्ति का स्पन्द भी उसका स्वभाव ही है । अतः कुन्तक का स्पन्द का स्वभाव के पर्याय रूप में प्रयोग असङ्गत नहीं । ( २ ) इसी प्रकार स्पन्द का धर्म के पर्याय रूप में भी प्रयोग असङ्गत नहीं क्योंकि रूपन्द धर्मरूप ही है । जैसा कि हमने पहले सिद्ध किया है और जैसा कि 'स्पन्दकारिका' को प्रथम निकाय की प्रथम कारिका को ही व्यख्या में श्रीरामकण्ठाचार्य लिखते हैं -- " स्पन्दशब्दवायं स्वस्वभावपरामर्शमात्रस्य नित्यस्य शून्यताव्यति रेचनकारणभूतस्य तावन्मात्रसंरम्भात्मनः शक्त्यपराभिधानस्य पारमेश्वरस्य धर्मस्य किञ्चिच्चलनात स्पन्द इति” । इससे स्पष्ट है कि स्पन्द संज्ञा किश्चिच्चलन रूप धर्म के कारण ही दी गई है । अतः कुन्तक का यह भी प्रयोग . दार्शनिक अर्थ से सर्वथा सङ्गत है । ( ३ ) स्पन्द का व्यापार के पर्याय रूप में भी प्रयोग असंगत नहीं, क्योंकि स्पन्द व्यापार ही है । जब स्पन्दन होता है तो वह स्पन्दन रूप क्रिया व्यापार ही तो होती है क्योंकि व्यापार क्रियाक्रमलक्षण हो तो होता है, और जैसा अभी हमने ऊपर दिखाया है कि - - " पारमेश्वरस्य धर्मस्य किश्चिच्चलनात स्पन्दः ।” स्पष्ट है कि किविचलन व्यापार से भिन्न नहीं ।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy