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चतुर्थोन्मेषः
४४९ इत्यन्तरश्लोकः ।
कथा की उत्पत्ति के समान होने पर भी (सभी श्रेष्ठ कवियों द्वारा विरचित) प्रबन्ध अपने-अपने गुणों से उसी प्रकार भिन्न-भिन्न मालूम पड़ते हैं जैसे कि प्राणी शरीर के समान होने पर भी अपने-अपने गुणों से भिन्न-भिन्न मालूम पड़ते हैं ।। ४४ ।। यह अन्तरश्लोक है।
नूतनोपायनिष्पन्न-नयवर्मोपदेशनाम् । महाकविनबन्धानां सर्वेषामस्ति वक्रता ॥ २६ ॥ नवीन ( सामादि ) उपयों से सिद्ध होने वाले नीतिमार्ग की शिक्षा देने वाले महाकवियों के सम्पूर्ण प्रबन्धों में वक्रता रहती है ।। २८ ।।
महाकविप्रबन्धानां नवनिर्माणले पुण्यनिरुपमानकविप्रकाण्डानां प्रबन्धानां सर्वेषां सकलानामस्ति वक्रता चक्रभावविच्छित्तिः । कीदृशा. नाम्-नूतनोपार्यानष्पन्ननयवर्मोपदेशिनाम । नतनाः प्रत्ययाः उपायाः सामादिप्रयोगप्रकारास्तद्विदां गोचरा ये तैनिष्पन्नं सिद्धं यन्नयवर्ती नीलिमार्गः तदुपदिशन्ति शिक्षयन्ति ये ते तथोक्तास्तेषाम । __ महाकवियों के समस्त प्रबन्धों में अर्थात् अपूर्व सृष्टि की कुशलता में अद्वितीय श्रेष्ठ कवियों के सम्पूर्ण ( महाकाव्य आदि ) प्रबन्धों में वक्रता अर्थात् बांकपन की शोभा रहती है । कैसे ( प्रबन्धों ) में-नवीन उपायों से सिद्ध नीतिमार्ग का उपदेश करने वाले (प्रबन्धों) में । नूतन अर्थात् नये-नये उपाय अर्थात् उन्हें जानने वालों के ज्ञान के विषयभूत सामादि के प्रयोग के ढङ्ग, उनके द्वारा निष्पन्न अर्थात सिद्ध जो नीतिमार्ग-नीतिपथ उसका जो उपदेश करते है अर्थात् सिखाते हैं वे ( नीतिमार्ग का उपदेश करने वाले हुए ) उन प्रबन्धों में ( वक्रता रहती है )।
इदमुक्तम्भवति-सकलेवपि सत्कविप्रबन्धेषु अभिनवभङ्गीनिवेशपेशलताशालि नीत्याः फलमुपपद्यमानं प्रतिपाद्योपदेशद्वारेण किमपि कारणमुपलभ्यत एव | यथा-मुद्राराक्षसे । तत्र हि प्रवरप्रज्ञाप्रभावप्रपञ्चितविचित्रनीतिव्यापाराः प्रगल्भ्यन्त एव । तापसवत्सराजोद्देश एव व्याख्यातः । एवमन्यदप्युत्प्रेक्षणीयम् ।
तो कहने का आशय यह है श्रेष्ठ कवियों के समस्त प्रबन्धों में अभिनव वक्रता के सनिवेश के कारण रमणीय नीति का फल रूपी एक अनिर्वचनीय कारण प्रतिपाय के उपदेश के द्वारा उत्पन्न किया जाता हुआ मिलता ही है। जैसे
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