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________________ ४४८ वक्रााक्तजावतम् पुष्ट करते हैं अर्थात् उन्मीलित करते हैं । (किसे)अनर्घ अर्थात् ममूल्य, इयत्ता से रहित । एक दूसरे से विलक्षण होने के कारण अर्थात् आपस में समान न होने के . . कारण वक्रता अर्थात् बांकपन को ( पुष्ट करते हैं । कोन हैं वे पुष्ट करने वाले) काव्यबन्ध अर्थात् रूपक आदि। कैसे ( काव्यबन्ध)-एक ही कक्ष्या से उपनिबद्ध अर्थात् एक ही इतिवृत्त से संयोजित किए गए । किनके द्वारा ( उपनिबद्ध किए गए ) कवीश्वरों के द्वारा । एक स्थान पर विस्तृत वस्तु को संक्षिप्त करने वाले अथवा दूसरी जगह संक्षिप्त वस्तु को विस्तृत करने वाले शब्द तथा अर्थ के विचित्र अलङ्कारों को एकत्र कर नवीनता को प्राप्त कराने वाले (कवीश्वरों द्वारा काव्यबन्ध वक्रता को पुष्ट करते हैं )। इदमत्र तात्पर्यम्-एकामेव कामरि कन्दलितकामनीयको कथा निवहद्भिबहुभिरपि कविकुञ्जरैनिबध्यमाना बहवः प्रबन्धा मनागप्यन्योऽन्यसंवादनमनासादयन्तं सहृदयहृदयाह्लादकं कमपि वक्रिमाणमादधाति । यथा-रामाभ्युदय-उदात्तराघव-वीरचरित-बालरामायण-कृत्याविण-मायापुष्पकप्रभृतयः ते हि प्रबन्धप्रवरास्तेनैव कथामार्गेण निरर्गलरसांसारगर्भसम्पदा प्रतिपदं प्रतिवाक्यं प्रतिप्रकरणञ्च प्रकाशमानाभिनव-भङ्गीप्राया रमणीयताभ्राजिष्णवो नवनवोन्मीलितनायकगुणोत्कर्षास्तेषां हर्षातिरेकममेकशोऽप्यास्वाद्यमाना समत्पादयन्ति सहृदयानाम् । एवमन्यदपि निदर्शनान्तरमद्भावनीयम् ।। यहाँ इसका आशय यह है कि-कमनीयता को उत्पन्न करने वाली किसी एक ही कथा का निर्वाह करने वाले बहुत से श्रेष्ठ कवियों द्वारा विरचित बहुत से प्रबन्ध थोड़ा भी एक दूसरे के सादृश्य को न प्राप्त करते हुए सहृदयों के हृदयों को आनन्दित करने वाली किसी ( अपूर्व ) वक्रता को धारण करते हैं । जैसे( एक ही राम कथा पर आधारित ) रामाभ्युदय, उदात्तराघव, वीरचरित, बालरामायण, कृत्यारावण, मायापुष्पक आदि ( अनेक प्रबन्ध परस्पर वैलक्षण्य के कारण वक्रता का वहन करते हैं ) । वे श्रेष्ठ प्रबन्ध उसी ( एक ही ) कथामार्ग से ( उपनिबद्ध होकर भी ) स्वच्छन्द रस को प्रवाहित करने वाली सम्पत्ति के द्वारा पद-पद में, वाक्य-वाक्य में, प्रकरण-प्रकरण में (सर्वत्र अपूर्व भङ्गिमा को प्रस्तुत करते हुए रमणीयता को धारण करते हुए नायक ने नये-नये उन्मीलित किए गए गुणों के उत्कर्ष से युक्त होकर अनेकों बार आस्वादित किए जाने पर भी उन सहृदयों के हर्षातिरेक को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार दूसरे भी उदाहरण स्वयं देने लेने चाहिए। कथोन्मेषसमानेऽपि वपुषीब निर्गुणैः। प्रबन्धाः प्राणिन इव प्रभासन्ते पृथक् पृथक् ॥४४॥
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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