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पारमार्थिक दृष्टि में जगत् को ब्रह्म से पृथक् सत्ता न वेदान्त ही स्वीकार करता है और न परमशिव से पृथक् जगत् की सत्ता प्रत्यभिज्ञादर्शन ही ।
लेकिन प्रत्यभिज्ञादर्शन के अनुसार स्पन्द सत् है जब कि वेदान्त का विवर्त असत् । वेदान्त के अनुसार ब्रह्म सत् है और उसका विवर्तरूप जगत् मिथ्या'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' पर प्रत्यभिज्ञादर्शन के अनुसार परमशिव भी सत्, शक्ति भी सत् और उसका स्पन्दरूप जगत् भी सत् है । जैसा कि 'प्रत्यभिज्ञाहृदय' में कहा गया है - "पराशक्तिरूपा चितिरेव भगवती शक्तिः शिवभट्टारका - भिन्ना तत्तदनन्त जगदात्मना स्फुरति" । यहो दोनों का भेद है ।
स्पन्द और परिणामवाद
जिस प्रकार प्रत्यभिज्ञादर्शन में जगत् शक्ति का स्पन्द है उसी प्रकार साङ्ख्य के अनुसार जगत् प्रकृति का परिणाम है । प्रकृति ही इस जगत् का कारण है । वह त्रिगुणात्मक है क्योंकि सामय सत्कार्यवाद को स्वीकार करता है । अतः क्योंकि जगत् त्रिगुणात्मक प्रतीत होता है अतः इसको कारणभूत प्रकृति भी त्रिगुणात्मक है ।
जिस प्रकार शक्ति का स्पन्दरूप जगत् शक्ति से पृथक् नहीं उसी प्रकार प्रकृति का परिणाम रूप जगत् प्रकृति से पृथक् नहीं; क्योंकि कारण ही तो परिणामरूप में परिवर्तित हो जाता है ।
शक्ति भी सत् है, इसका स्पन्द भी सत् है, उसी प्रकार प्रकृति भी सत् है उसका परिणाम भी सत् 출 1
परन्तु सांख्यकी प्रकृति जड़ है । वह परिवर्तनशील है, और उसमें यह परिवर्तन उससे भिन्न निरपेक्ष, चेतन एवं नित्य पुरुष के दर्शन से प्रारम्भ होता है । परिणामतः इसमें द्वैत की सत्ता स्वीकृत है, जब कि प्रत्यभिज्ञादर्शन में शक्ति जड नहीं । उसमें परिवर्तन भी नहीं होता । परिवर्तन का हमें केवल आभास होता है । तथा शक्ति परमशिव से भिन्न नहीं । अतः इसमें अद्वैत को सत्ता स्वीकृत हैं ।
इसके अतिरिक्त सांख्य पुरुष की अनेकता स्वीकार करता हैं जब कि प्रत्यभिज्ञादर्शन परमशिव को एकता ।
स्पन्द और नैयायिक उत्पत्ति सिद्धान्त
जिस प्रकार वेदान्त जगत् को ब्रह्म का विवर्तरूप, सांख्य प्रकृति का परिणामरूप एवं प्रत्यभिशादर्शन शक्ति का स्पन्दरूप स्वीकार करता है उसी