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"इह खलु परपरामर्शसारबोधात्मिकायां परस्यां वाचिं सर्वभारनिर्भरत्वात् सव शास्त्रं परबोधात्मकतयैवोज्जृम्भणं सत्-इति ।"
इस परावाक् के तीन अन्य रूप भी हैं जो वस्तुतः इसके स्पन्द रूप ही हैं।
१. पश्यन्ती, २. मध्यमा, और ३. वैखरी।
१. पश्यन्ती-दशा से भी वाच्य और वाचक का विभाग नहीं हुआ होता । अतः वाच्य से अभिन्न होने के कारण उसमें अर्थ रूप आन्तरिक ज्ञान का परामर्श होता रहता है किन्तु वह परामर्श अहन्ता से आच्छादित हो स्फुरित होता है। इसे 'तन्त्रालोक' में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है____ "पश्यन्तीदशायां वाच्यवाचकविभागस्वभावत्वेनासाधारणतयाऽहं प्रत्यवमर्शात्मकमन्तरुदेति। अतएव हि तत्र प्रत्यवमर्शकेन प्रमात्रा परामृश्यमानो वाच्योऽर्थोऽहन्ताच्छादित एव स्फुरति ।"
. २.-मध्यमा-दशा में यह वाक् भिन्न-भिन्न वाच्य और वाचक के रूप में । उल्लसित होती है । लेकिन भीतर हो, बाहर नहीं। इसमें यह भिन्नरूपता इसलिए
आ जाती है क्योंकि इसमें वेद्य और वेदक अर्थात् प्रमेय और प्रमाता के प्रपञ्च का उदय हो जाता है । इसे अभिनवगुप्त ने इस प्रकार व्यक्त किया है-- - "तदनु तदेव मध्यमाभूमिकायामन्तरेव वेद्यवेदकप्रपञ्चोदयात् वाच्यवाचकस्वभावतयोल्लसति ।"-तन्त्रालोक ।
३. वैखरी-दशा में यह वाच्य और बाचक का भेद अत्यधिक स्पष्ट होकर बाह्य रूप में हमारे सामने उपस्थित होता है। जैसा तन्त्रालोक में कहा गया है
'यबहिवैखरीदशायां स्फुटतामियादिति ।' वस्तुतः हमारे नित्य प्रयोग में श्रानेवाली भाषा वाक् का वैखरी रूप ही है।
इस प्रकार यह स्पष्ट हुश्रा कि जिस प्रकार जगद्वैचित्र्य केवल चित् शक्ति का परिस्पन्दमात्र है उसी प्रकार यह वाच्यवाचकवैचित्र्य भी चिद्रूपा परावाक् का परिस्पन्द ही है।
स्पन्द और विवर्तवाद
जिस प्रकार प्रत्यभिज्ञादर्शन में परमशिव की अद्वैतता सिद्ध करने के लिए जगत् को स्पन्द रूप माना गया है, उसी प्रकार वेदान्तदर्शन में ब्रह्म की अद्वैतता को पिद्ध करने के लिए जगत को विवर्तरूप में स्वीकार किया गया है ।
५व० भ०