SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 480
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थोन्मेषः ४१९ तुल्यदिवसमानन्दयन्तीसमाननाय मलिम्लचेनेव' प्रविशता प्रकम्पावेगविकलालसकायनिपातनिहितनिद्रस्य द्वारदेशशायिनः कलहायमानस्य' कुवलयस्यात्कोचकारणं स्वकरादङ्गुलीयकदानं यत्कृतं तचतुर्थेऽङ्के मथुराप्रतिनिवृत्तेन तेनैवाशमदमस्य निष्क्रम्य समावेदितसमुद्रदत्तवृत्तान्तेन कुल कलङ्कातङ्ककदर्यमानस्य सार्थवाहसागरदत्तस्य स्वतनयस्पर्शमानसमाविदूरस्नुषा शीलशुद्धिमुन्मीलयत्तदुपकाराय कल्प्यते ।...." जैसे-'पुष्पदूषितक' में द्वितीय अङ्क में, यात्रा से लौट कर पूर्ण अनुकृतिवश नई सम्पत्ति के सम्यक् सम्भावना के कारण कामदेव के प्रबल उन्माद की मुद्रा वाले समुद्रदत्त ने दिवसतुल्य अपने वैभवगृह में आनन्दयन्ती को ले आने के लिए चोर की तरह प्रवेश करते हुए कंपकंपी के आवेग से विह्वल एवं अलसाये हुए शरीर के गिराने से समाप्त निद्रा वाले, दरवाजे पर सोने वाले ( झगड़ा करने के लिए उतारू कुवलय के बूंस की निमित्तभूत जो अंगूठी अपने हाथ से दिबा था वही चौथे अङ्क में मथुरा से लौटे हुए उसी (कुवलय) द्वारा निष्क्रमण कर के बताये गये समुद्रदत्त के वृत्तान्त से, अद्वितीय इन्द्रियनिग्रह वाले परिवार के कलङ्क के भय से कातर होने वाले व्यापारी सागरदत्त के अपने पुत्र के द्वारा स्पर्शमान निकटस्थ पुत्रवधू की ( अर्थात् उसीके संसर्ग से गर्भवती उसकी वधू को)आचरण शुद्धि को उन्मीलित करती हुई उपकारक सिद्ध होती है । - यथा चोत्तररामचरिते पृथुगर्भभरखेदितदेहाया विदेहराजदुहितुविनोदाय दाशरथिना चिरन्तनराजचरितचित्ररुचिं दर्शयता निर्याज. विजयिविजम्भमाणजम्भकास्त्राण्युद्दिश्य 'सर्वथेदानीं त्वत्प्रसूतिमुपस्थास्यन्ति' इति यदभिहितं तत्पञ्चमेऽङ्के प्रवीरचर्याचतुरेण चन्द्रकेतुना क्षणं समर केलिमाकाङ्कता[ : ]तदन्तरायकलितकलकलाडम्बराणां वरूथिनीनां सहजजयोत्कण्ठाभ्राजिष्णोर्जानकीनन्दनस्य जम्भकालव्यापारेण कमप्युपकारमुत्पादयति । तथा च तत्र १. यहाँ पर डा० - डे ने स्थान छोड़ दिया था और पाद टिप्पणो में उन्होंने 'मलिम्लुचेनेव' के आगे ( ? ) लगाकर 'मणिसुचेनेव' पाठ सुधारा है । परन्तु क्या साचकर ऐसा किया कह सकना कठिन है, जब कि 'मलिम्लुच' का अर्थ चोर होता है और पाण्डुलिपि में पाया जाने वाला पाठ सही है । 'विश्वकोश' का कथन है-"मलिम्लुचो मांसभेदे चौरज्वलनयोः पुमान्"। २. यहाँ भी डा. डे ने रिकस्थान छोड़ दिया था। पादटिप्पणो में 'कदाहायमानस्य' पाठ दिया था।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy