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चतुर्षोन्मेषः
.४१७ उत्पाद्यलवलावण्यादिति द्विधा व्याख्येयम | कचिदसदेवोत्पाद्यमथवा आहृतम्, क्वचिदौचित्यत्यक्तं सदप्यन्यथा सम्पाद्यं सहृदयहृदयाहादनाय | यथोदात्तराघवे मारीचवधः । तच्च प्रागेव व्याख्यातम् । एवमन्यदप्यस्या वक्रताविच्छित्तेरुदाहरणं महाकविप्रबन्धेषु स्वयमेवो. त्प्रेक्षणीयम् ।
(कारिका में प्रयुक्त) 'उत्पाद्यलवलावण्याद्' इस पद की दो प्रकार से व्याख्या करनी चाहिए। कहीं तो . ( इतिवृत्त में ) न विद्यमान रहने वाला ही (प्रकरण ) उत्पाद्य या काल्पनिक ( प्रकरण होता है और ) कहीं अनौचित्यपूर्ण ( ढङ्ग से ) विद्यमान भी (प्रकरण ) सहृदयों के हृदयों को आनन्दित करने के लिए दूसरे ढङ्ग से प्रस्तुत करने योग्य (बनाये जाने पर, उत्पाद्य होता है ) जैसे उदात्तराघव में मारीचवध । उसकी व्याख्या पहले ही (प्रथम उन्मेष में ) की जा चुकी है। इस प्रकार (प्रकरण) वक्रता के इस सौन्दर्य के दूसरे भी उदाहरण (सहृदयों को ) महाकवियों के काव्यों में स्वयं ही समझ लेना चाहिए।
निरन्तररसोद्गारगर्भसन्दर्भनिर्भराः।
गिरः कवीनां जीवन्ति न कथामात्रमाश्रिताः ।। १२ ।। कवियों की वाणी केवल कथा पर ही आश्रित होकर नहीं, अपितु निरन्तर रस का आस्वादन कराने वाले प्रसङ्गों के अतिशय से युक्त होकर जीवित रहती है ॥ १२ ॥ इत्यन्तरश्लोकः ।
यह अन्तरश्लोक है। अपरमपि प्रकरणवक्रताप्रकारमाविर्भावयतिप्रबन्धस्यैकदेशानां फलबन्धानुबन्धनान् । उपकार्योपकतत्वपरिस्पन्दः परिस्फुरत् ॥ ५॥ असामान्यसमुल्लेखप्रतिभाप्रतिभासिनः ।। सूते नूतनवक्रत्वरहस्यं कस्यचित्कवेः ॥६॥ प्रकरणवत्रता के अन्य ( तृतीय ) प्रकार को भी प्रकाशित करते हैं
किसी ( प्रतिभासम्पन्न ही ) कवि की लोकोत्तर वर्णन करने वाली शक्ति से देदीप्यमान प्रबन्ध के प्रकरणों का, फलबन्ध ( अर्थात् मुख्य कार्य ) का अनुवर्तन करने वाला उपकार्य एवं उपकारक भाव का माहात्म्य समुसित होता हुआ अभिनव वक्रता के रहस्य को उत्पन्न करता है ॥ ५.६ ॥
सूते समुन्मीलयति । किम नूतनवक्रत्वरहस्यम् अभिनववक्र २७५०जी०
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