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तृतीयोन्मेषः
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(सूक्ष्मं यथा)
सङ्केतकालमनसं विटं ज्ञात्वा विदग्धया।
हसन्नेत्रापिताकूत लीलापद्म निमीलितम् ।। १७६ ।। - आंखों से अभिप्राय को बताने वाले धूर्त (नायक-विट) को संकेत समय की इच्छा वाला समझ कर कुशल ( नायिका ) ने हंसते हुए लीलाकमल को बन्द . कर दिया ॥ १७९॥ ( हेतुर्यथा)
अयमान्दोलितप्रौढचन्दनदुमपल्लवः !
उत्पादयति सर्वस्य प्रीतिं मलयमारुतः ।। १८०॥ चन्दन वृक्ष के पुराने ( परिपक्व ) पत्तों को हिलाने वाला यह मलयपवन सभी में प्रेम को उत्पन्न कर देता है १८० ॥ (लेशो यथा)
राजकन्यानुरक्तं मां रोमोद्भेदेन रक्षकाः।
अवगच्छेयुराज्ञातमहो शीतानिलं वनम् ।। १८१ ।। (लेश)-रोमाञ्च के उदित होने के कारण ( अन्तःपुर के ) रक्षक (कहीं) मुझे राजकन्या में अनुरक्त न समझ लें, ओहो ! समझ गया (रोमान्च का कारण) अरे वन ठंडी हवाओं वाला है । ( अतः कह दूंगा कि ठंडक से रोमान्च हुआ है, राजकन्या के दर्शन से नहीं) ॥ ११ ॥
इसी प्रकार कुन्तक भामह द्वारा स्वतन्त्र अलङ्कार रूप में स्वीकृत 'उपमारूपक' अलङ्कार का भामह के उपमा रूपक के उदाहरण को उधृत करते हुए • खण्डन करते हैं। पर पूर्ण पाठ के सुस्पष्ट न होने के कारण खण्डन कैसे किया गया है इसे कह सकना कठिन है।
केचिदुपमारूपकाणामलङ्करणत्वं मन्यन्ते । तदयुक्तम् , अनुपपद्यमानत्वात्।
कुछ ( भामह आदि ) आचार्य उपमारूपकों की अलङ्कारता स्वीकार करते हैं । वह ठीक नहीं ( अलङ्कारता ) के सिद्ध न होने के कारण । (यथा)
समग्रगगनायाममानदण्डो रथाङ्गिनः।
पादो जयति सिद्धस्त्रीमुखेन्दुनवदर्पणः ॥ १८३॥' १. यहाँ पाठ मैंने मामह के कान्यालङ्कार के आधार पर दिया है। जब कि ० डे ने 'समस्तगगनाभोगम्' यह पाठ दे रखा है जो कि काव्यालङ्कार (श्री बालमनोरमा सीरीज नं० ५४ ) में तो नहीं है।