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कुन्तक और कश्मीर-शैवाद्वैत प्रत्यभिज्ञादर्शन के अनुसार एकमात्र परम तत्त्व 'परम शिव' है जो अद्वैत, निर्विकार एवं सच्चिदानन्दस्वरूप है। शिव का स्वरूप शिवदृष्टि में इस प्रकार म्यक्त कियाग या हैः
"आत्मस सर्वभावेषु स्फुरनिर्वृतचिद्वभुः ।
अनिरुद्धेच्छाप्रसरः प्रसरविक्रयः शिवः ।" उन शिव की शक्तियाँ अनन्त हैं-"शक्तयश्वासङ्खयेयाः”-शिवदृष्टि । किन्तु मुख्यरूप से उन्हें पाँच शक्तियों पर निर्भर कहा गया है- “पञ्चशक्तिषु निर्भरः"-शि• दृ• । परमार्थतः ये शक्तियाँ शिव से भिन्न नहीं, क्योंकि शक्तिशक्तिमतोरभेदः' न्याय से शक्ति और शक्तिमान में अभेद होता है, जैसे अग्निऔर उसका दाहकत्व एक दूसरे से अभिन्न हैं, अग्नि शक्तिमान है और दाहकत्व उसकी शक्ति । यही बात 'शिवदृष्टि' में इस प्रकार कही गई है:
"न शिवः शक्तिरहितो न शक्तिर्व्यतिरेकिणी। शिवः शत्तस्तथा भावानिच्छया कतमीहते ।।
शक्तिशक्तिमतोर्भेदः शैवे जातु न वर्ण्यते ॥" उन शिव की पाँच शक्तियाँ है-चित्, आनन्द, इच्छा, ज्ञान और क्रिया, जिनका स्वरूप निम्न प्रकार है:
(१) चित् शक्ति-प्रकाशरूपता ही चित् शक्ति है, क्योंकि परमशिव प्रकाशरूप है, अतः प्रकाशरूपता उसकी शक्ति हुई, जैसा 'तन्त्रतार' में कहा गया है-'प्रकाशरूपता चिच्छक्तिरिति ।'
(२) आनन्दशक्ति-स्वातन्त्र्य ही आनन्द शक्ति है क्योंकि आनन्द की उपलब्धि स्वतन्त्रता में ही सम्भव है, परतन्त्रता में नहीं। 'तन्त्रसार' में कहा गया है—'स्वातंत्र्यमानन्दशक्तिरिति ।'
(३) इच्छाशक्ति--'इस प्रकार से मैं इस प्रकार का हो जाऊ ऐसा शिव का चमत्कार ही इच्छाशक्ति है- 'तच्चमत्कार इच्छाशक्तिः। चमत्कारस्तु इत्थ- .. म्बुभूषालक्षण इति ।-तन्त्रसार। ..
(४) ज्ञानशक्ति-थोड़ा सा वेद्य ( ज्ञान ) को ओर उन्मुख होना अर्थात् भामर्शरूपता ही ज्ञान शक्ति है । वस्तुतः तो परम शिव ज्ञानस्वरूप ही है। 'भामर्शात्मकता ज्ञानशक्तिः । ईषत्तया वेद्योन्मुखता भामर्श इति'-तन्त्रसार ।
(५) क्रियाशक्ति-एक का अनेक में समस्त भाकारों में योग हो जाना।