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तृतीयोग्मेवः जैसे-( इसके पहले उदाहरण की चतुर्थ पंक्ति)
किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् । यह पंक्ति ॥ १६२ ॥ यथा वा
असंशयं क्षत्रपरिग्रहक्षमा यदार्यमस्यामभिलाषि मे मनः । सतां हि सन्देहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः ।।१६३।। अथवा जैसे। शकुन्तला को देख कर राजा दुष्यन्त की यह उक्ति कि
निश्चय ही ( यह शकुन्तला ) क्षत्रिय द्वारा ग्रहण करने ( अथवा क्षत्रिय की पत्नी बनने ! योग्य है क्योंकि मेरा श्रेष्ठ हृदय इसके विषय में अभिलाषयुक्त हो गया है क्योंकि सन्देह की स्थलभूत वस्तुओं के विषय में श्रेष्ठ जनों के हृदय की प्रवृत्तियाँ ही प्रमाण होती हैं ॥ १६३ ॥
निषेधच्छाययाक्षेपः कान्ति प्रथयितुं पराम् ।
आक्षेप इति स ज्ञेयः प्रस्तुतस्यैव वस्तुनः ॥ ३९ ॥ वर्ण्यमान पदार्थ के ही परम सौन्दर्य को व्यक्त करने के लिए जो प्रतिषेध की शोभा से ( प्रस्तुत का) अपवाद किया जाता है उसे आक्षेप ( अलङ्कार ) समझना चाहिए ॥ ३९ ॥ ___ आक्षेपमभिधत्ते-निषेधच्छाय येत्यादि । आक्षेप इति स ज्ञेयः सोऽयमाक्षेपालङ्कारो ज्ञातव्यः । स कीदृशः-प्रस्तुतस्यैव वस्तुनः प्रकृतस्यैवार्थस्य आक्षेपः क्षेपकृत् । अभिप्रेतस्यापि निर्वर्तनमिति । कथम्निषेधच्छायया प्रतिषेधविच्छित्त्या । किमर्थम्-कान्ति प्रथयितुं पराम् । उपशोभां प्रकटयितुं प्रकृष्टाम् ।
आक्षेप ( अलङ्कार ) का प्रतिपादन करते हैं-निषेधच्छाय या इत्यादि ( कारिका के द्वारा ) उसे आक्षेप ऐसा समझना चाहिए अर्थात् वह यह आक्षेप नामक अलङ्कार है ऐसा जानना चाहिए। वह कैसा है-प्रस्तुत ही वस्तु का अर्थात् वर्ण्यमान ही पदार्थ का आक्षेप अर्थात् निन्दा करने वाला है। अभिप्रेत का भी निषेध करना। कैसे-निषेध की छाया से अर्थात प्रतिषेध के सौन्दर्य से । किस लिए-परम कान्ति को प्रस्तुत करने के लिए। अर्थात् उत्कृष्ट सौन्दर्य को व्यक्त करने के लिए ( प्रस्तुत का आक्षेप, आक्षेपालङ्कार होता है )।
__ इस आक्षेपालङ्कार के उदाहरण रूप में कुन्तक ने एक प्राकृत का श्लोक उधृत किया है, जो कि पाण्डुलिपि के अत्यन्त भ्रष्ट होने के कारण नहीं पढ़ा जा सका । अतः उदाहरण यहाँ प्रस्तुत कर सकना कठिन है।