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तृतीयोन्मेषः
३८९ रामावतारधारी विष्णु ने लंका नामक एक द्वीप के अधिपति विभीषण के द्वारा अनुगत होकर ही सागर पर सेतुबन्ध किया था। इन महाराज के सेतुबन्ध की सम्भावना के समय अनेकों द्वीपों के स्वामियों का अनुगमन प्राप्त है यह व्यतिरेक है ) ॥ १४७ ॥
इसके विषय में कुन्तक कहते हैं कि--
( अत्र ) तत्त्वाच्यारोपणात् प्रतीयमानतया रूपकमेव पूर्वसूरिभिगनातम्।
अर्थात् प्राचीन आचार्यों ने यहाँ तत्त्व का आरोप होने के कारण प्रतीयमान रूपक ही स्वीकार किया है।
इसी प्रसङ्ग में कुन्तक ( आनन्दवर्धनाचार्य ) की ध्वनि की परिभाषा 'यत्रार्थः शब्दो वा' आदि को उद्धृत करते हैं एवं प्रतीयमानता के अर्थ का विवेचन करते हैं । ( ध्वन्यालोक को कारिका इस प्रकार है )
यत्रार्थः शब्दो वा तमर्थमपसर्जनीकृतस्वार्थों ।
व्यतः काव्यविशेषः स ध्वनिरिति सूरिभिः कथितः ।। १४८ ॥ जहाँ पर अर्थ अपने स्वरूप को और शब्द अपने अर्थ को गौण बना कर (प्रतीयमान ) अर्थ को व्यक्त करते हैं वह काव्यविशेष विद्वानों द्वारा 'ध्वनि' कहा गया है ॥ १४८ ॥
परन्तु यहाँ प्रतीयमानता आदि के अर्थ का विवेचन आचार्य कुन्तक ने क्या और कैसे किया है यह कुछ भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि आगे पाण्डुलिपि पढ़ी नहीं जा सकी। इसीलिए डा० डे ने केवल उसका संकेतमात्र कर दिया है। ___ इसके अनन्तर कुन्तक श्लेषव्यतिरेक के उदाहरणस्वरूप अधोलिखित श्लोक प्रस्तुत करते हैं-- (श्लेषव्यतिरेको यथा)
श्लाघ्याशेषतर्नु सुदर्शनकरः सर्वाङ्गलीलाजितत्रैलोक्यां चरणारविन्दललितेनाक्रान्तलोको हरिः । बिधाणां मुखमिन्दुरूपमखिलं चन्द्रात्मचक्षुर्दधत्
स्थाने यां स्वतनोरपश्यदधिकां सा रुक्मिणी वोऽवतात्॥१४॥ श्लेषव्यतिरेक का उदाहरण जैसे
सुदर्शनकर अर्थात् सुदर्शन को हाथ में धारण करने वाले ( या जिनके हाथ ही दर्शनीय हैं ) अरविन्द सुन्दर (एक) चरण से लोक भर पर अधिष्ठित हो जाने वाले और चन्द्रस्वरूप नेत्र को धारण करने वाले हरि ने जिस रुक्मिणी