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वक्रोक्तिजीवितम् द्वारा श्लेष के आधारभूत शब्द का परामर्श कर रहे हैं। उसके वाच्यत्व अर्थात् अभिधा के द्वारा समर्पणीय होने पर अर्थात् परस्पर स्वभाव के सादृश्य के वर्तमान होने पर भी...। इस प्रकार के शब्दवाच्यत्व और धर्मसाम्य के दोनों में स्थित होने के कारण दोनों के प्रस्तुत होने के नाते प्रस्तुत और अप्रस्तुत के बीच भी इन दोनों के धर्म से एक का रुचि के अनुसार किसी अनिर्वचनीय विवक्षित अन्य पदार्थ के द्वारा और तरह से स्थित अर्थात् उस तरह से न स्थित रखने वाले से व्यतिरेक अर्थात् अलग करना ( इसका आशय ) है । दूसरे से अर्थात् उपमेय का उपमान से अपवा उपमान का उपमेय से । वह व्यति. रेक नाम का अलङ्कार अभिहित होता है अर्थात् कहा जाता है। किस लिएप्रस्तुत के उत्कर्ष की सिद्धि के लिये । प्रस्तुत अर्थात् वर्ण्य विषय के सौन्दर्यातिशय को प्रस्तुत करने के लिए। वह दो प्रकार का हो सकता है-शाब्द अथवा प्रतीयमान । शाब्द अर्थात् कविपरम्परा प्रसिद्ध उसको व्यक्त कर सकने में समर्थ पद के द्वारा प्रकाशित किया जाता हुआ । प्रतीयमान अर्थात् केवल वाक्यार्थ के सामर्थ्य से ही बोधित किये जाने योग्य । . इसके अनन्तर कुन्तक ने व्यतिरेक के उदाहरणस्वरूप एक प्राकृत श्लोक तथा दो संस्कृत श्लोकों को उद्धृत किया है। जिनमें से प्राकृत श्लोक तथा . दूसरा संस्कृत श्लोक पाण्डुलिपि में अत्यन्त भ्रष्ट एवं अपूर्ण था। जिसे उद्धृत नहीं किया जा सका । तीसरा श्लोक इस प्रकार है
प्राप्तवीरेष कस्मात्पुनरपि मयि तं मन्थखेदं विदध्यानिद्रामप्यस्य पूर्वामनलसमनसो नैव सम्भावयामि । सेतुं बध्नाति भूयः किमिति च सकलद्वीपनाथानुयात
स्त्वय्यायाते वितर्कानिति दधत इवाभाति कम्पः पयोधेः॥ . यह महाराज तो श्री अर्थात् रमा या सम्पत्ति को प्राप्त कर चुके हैं तो फिर किस लिए मेरे अन्दर उस मथने के कष्ट को फिर से उत्पन्न करेंगे, इन महाराज की पहले वाली निद्रा को भी आलस्यरहित चित्त होने के नाते नहीं सम्भावित कर पाता हूँ, क्या ये सारे द्वीपों के स्वामियों से अनुगत होते हुए भी फिर से सेतुबन्ध करेंगे। इस तरह के संशयों को, तुम्हारे आने पर, मन में धारण करता हुआ सागर का ज्वार-भाटा सुशोभित हो रहा है । ( विष्णु ने अप्राप्तश्री होने पर ही सागर का मन्थन किया था प्रस्तुत महाराज क्या प्राप्ती होकर मंथन करना चाहते हैं यह व्यतिरेक है। भगवान् विष्णु सालस्यचित्त होकर ही निद्रा को अतिवाहित करने के लिए सागर की गोद में आते है परन्तु ये महाराज मनलसमन होते हुए भी सागर के अवगाहनार्थ आये हुए है यह भ्यतिरेक है।