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पक्रोक्तिजीवितम् इस प्रकार अप्रस्तुतप्रशंसा का विवेचन कर विवक्षित अर्थ की प्रतीति कराने के लिए दूसरे ढङ्ग से प्रतिपादन किये जाने के कारण लगभग इसी. ( अप्रस्तुतप्रशंसा ) के सदृश पर्यायोक्त ( अलङ्कार ) का विवेचन करते हैंयदाक्यान्तर इत्यादि कारिका के द्वारा। पर्यायोक्त उसे कहा जाता है अर्थात् उसको पर्यायोक्त नाम का अलङ्कार कहा जाता है। कैसे ! उसको )-जो मरे बाक्य के द्वारा कही जाने वाली अर्थात् अन्य पदसमूह के द्वारा प्रतिपादित की जाने वाली वाक्यार्थरूप वस्तु उससे भिन्न जिस दूसरे वाक्य से समर्थित अर्थात् प्रतिपादित की जाती है। किम लिए-उपशोभा की निष्पत्ति के लिए अर्थात् सौन्दर्य की प्रतीति कराने के लिए। वह पर्यायोक्त ( अलङ्कार ) होती है यह अभिप्राय हुआ।
___ इस पर पूर्वपक्षी प्रश्न करता है कि इस प्रकार यहाँ पर्यायवक्रता से अधिक क्या उत्कर्ष आता है ( यह तो पर्यायवक्रता ही हुई ) ? इसका ग्रन्थकार उत्तर देता है कि 'पर्यायवक्रता का वाच्यरूप से केवल पदार्थ हो विषय होता है जब कि पर्यायोक्त अलङ्कार का वाक्यार्थ भी अङ्ग रूप में विषय होता है इसी लिए इसका अलग से प्रतिपादन किया गया है । इसका उदाहरण जैसे
चक्राभिघातप्रसभाज्ञयैव चकार यो राहुवधूजनस्य । __ आलिङ्गनोदामविलासबन्धंरतोत्सवं चुम्बनमात्रशेषम् ।। ६० ।।
जिस ( विष्णु भगवान् ) ने सुदर्शन चक्र के प्रहाररूप अनुचनीय आदेश से ही राहु की स्त्रियों के सम्भोग के आनन्द को आलिङ्गन की प्रधानता वाले क्लिासों से शून्य केवल अवशिष्ट चुम्बन वाला कर दिया था। __ इसके बाद ग्रन्थ की पाण्डुलिपि में 'अत्र ग्रन्थपानः लिख कर कुछ अन्यभाग के लुप्त होने की सूचना दी गई है । वस्तुतः यह 'प्रन्थपात' का सङ्केत प्राण्डुलिपि में रूपकालङ्कार के विवेचन के प्रारम्भ में एवं पर्यायोक्त के अन्त में दिया गया था। किन्तु रूपकालङ्कार के विवेचन के अनन्तर पुनः कुछ अंश का लुप्त होना द्योतित होता है क्योंकि उसके बाद विवेचित किए गए व्याजस्तुति अलङ्कार के केवल उदाहरण ही प्राप्त होते हैं लक्षण नहीं है। अतः डा० डे ने पाण्डुलिपि के कुछ पन्नों के क्रम की गड़बड़ी बताई है और उन्होंने दीपकालङ्कार के अनन्तर रूपकालङ्कार का विवेचन प्रस्तुत किया है क्योंकि वृत्ति में स्वयं ग्रन्थकार ने भी इस प्रकार सङ्केत किया है कि
'एकदेशवृत्तित्वमनेकदेशवृत्तित्वन्च रूपकस्य दीपकेन समालक्ष्यमिति तदनन्तरमस्योपनिबन्धनम् ।