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तृतीयोन्मेषः
३५९ अत्यन्त भ्रष्ट होने के कारण डा० डे द्वारा नहीं पढ़ा जा सका । इसके अनन्तर इस प्रकरण का उपसंहार करते हुए कुन्तक कहते हैं कि
तदेवमयमप्रस्तुतप्रशंसाव्यवहारः कवीनामतिविततप्रपञ्चः परिदृश्यते । तस्मात्लहृदयैश्च स्वयमेवोत्प्रेक्षणीयः । प्रशंसाशब्दोऽत्र अर्थप्रकाशादिवद्विपरीतलक्षणया वर्तते । ___ तो इस प्रकार यह अप्रस्तुतप्रशंसा का व्यवहार कवियों में अत्यधिक विस्तृत क्षेत्र वाला दिखाई पड़ता है, अतः सहृदयजन स्वयं इसको समझें। यहां पर प्रशंसा शब्द अर्थप्रकाश आदि पदों के व्यवहार में पायी जाने वाली विपरीत लक्षणा से अर्थ प्रस्तुत करता है।
शैवाद्वैत में प्रकाशस्वरूप केवल शिव हैं अर्थ नहीं। वाच्यवाचकरूप जगत् तो शक्तिपरिस्पन्दमात्र है, अतः अर्थप्रकाश में मुख्यार्थ बाधित माना जायगा। वस्तुतः अर्थ प्रकाशरूप शिव के विमर्श से आभासित होता है न कि अर्थ का कोई प्रकाश हो सकता है। अतएव विपरीत लक्षणा के द्वारा प्रकाशविमृष्ट अर्थ रूप अथ ही गृहीत होगा।
इस प्रकार अप्रस्तुतप्रशंसा का व्याख्यान समाप्त कर कुन्तक पर्यायोक्त अलङ्कार का विवेचन प्रारम्भ करते हैं । पर्यायोक्त अलङ्कार का लक्षण इस प्रकार है
यद्वाक्यान्तरवक्तव्यं तदन्येप समर्थ्यते।
येनोपशोभानिष्पत्त्य पर्यायोक्तं तदुच्यते ॥ २३ ॥ दूसरे वाक्य द्वारा प्रतिपादित करने योग्य वस्तु सौन्दर्य की सृष्टि के लिए, उससे भिन्न जिस ( वाक्य के ) द्वारा प्रतिपादित की जाती है उसे पर्यायोक्त ( अलङ्कार ) कहा जाता है ॥ २३ ॥
एवमप्रस्तुतप्रशंसां विचार्य विवक्षितार्थप्रतिपादनाय प्रकारान्तरामिधानत्वादनयैव समानप्राय पर्यायोक्तं विचारयति-यद्वाक्यान्तरेत्यादि । पर्यायोक्तं तदुच्यते-पर्यायोक्ताभिधानमलकरणं तदभिधीयते । कीदृशम्-यद्वाक्यान्तरवक्तव्यं वस्तु वाक्यार्थलक्षणं पदसमुदायान्तराभिधेयं तदन्येन वाक्यान्तरेण येन समर्थ्यते प्रतिपाद्यते । किमर्थम्उपशोभानिष्पत्त्यै विच्छित्तिसम्पत्तये । तत्पर्यायोक्तमित्यर्थः ।
तदेवं पर्यायवक्रत्वात् किमत्रातिरिच्यते ? पर्यायवक्रत्वस्य पदार्थमात्रं वाच्यतया विषयः पर्यायोक्तस्य नाक्यार्थोप्यतयेति तस्मात्पृथगभिधीयते । उदाहरणं यथा