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धर्म नहीं माना जा सकता है अन्यथा एक देश के सभी कवियों की रचना एक जैसी ही होनी चाहिए । परन्तु ऐसा होता नहीं। अतः देशविशेष के आधार पर रीतियों का विभाजन समीचीन नहीं जैसा कि दण्डी आदि प्राचार्यों ने किया है।
रीतियों को उत्तम, मध्यम और अधम मानना उचित नहीं
कुछ प्राचार्यों ने वैदर्भी को उत्तम, पाञ्चाली को मध्यम और गौडीया को अधम रीति के रूप में स्वीकार किया था। उसका भी खण्डन कुन्तक ने किया है। उनका कहना है कि इस प्रकार का वैविध्य स्थापित करना ठीक नहीं। अन्यथा वैदर्भी के अलावा अन्य रीतियों का जो उपदेश किया गया है वह व्यर्थ सिद्ध होगा। भला कौन ऐसा मनुष्य होगा जो कि उत्तम चीज को छोड़कर मध्यम और अधम का ग्रहण करेगा। यदि कोई सही रूप में रचना काव्य है तो वह उत्तम ही होगी। क्योंकि काव्य कोई दरिद्र का दान तो है नहीं कि यथाशक्ति उसको प्रस्तुत किया जाय । काव्य तो वही होगा जो कि सहृदयालादकारी हो और ऊपर बताये गए काव्यलक्षण से समन्वित हो।
कवि स्वभाव के आधार पर मार्ग-विभाजन
अतः कुन्तक ने मार्गविभाजन का आधार कविस्वभाव को स्वीकार किया। जिस कवि का जैसा स्वभाव होता है वैसी ही उसकी शक्ति होती है और उसी शक्ति के अनुरूप उसकी व्युत्पत्ति और अभ्यास भी होते हैं। इस प्रकार सुकुमार स्वभाव की सुकुमार शक्ति होती है, क्योंकि शक्ति और शक्तिमान में अभेद होता है । उस सुकुमार शक्ति के द्वारा वह कवि सौकुमार्य से रमणीय व्युत्पत्ति अर्जित करता है और उसी सुकुमार शक्ति और व्युत्पत्ति के आधार पर वह सुकुमार मार्ग के अभ्यास में लगता है और सुकुमार काव्य की रचना करता है। इसी प्रकार विचित्र स्वभाव वाला कवि विचित्र काव्य को प्रस्तुत करता है और मध्यम स्वभाववाला कवि मध्यम काव्य को प्रस्तुत करता है । यद्यपि कविस्वभाव के आधार पर इन मार्गों का आनन्त्य अनिवार्य है किन्तु उनकी गणना न हो सकने के कारण सामान्य ढङ्ग से उनके तीन भेद स्वीकार किये गए हैं। इन तीनों में कोई भी उत्तम, मध्यम, या अधम ढंग से विभाजित नहीं हैं। सम रमणीय हैं। क्योंकि सहृदयों को आहादित करने की सामर्थ्य की किसी में जरा भी कमी नहीं होती है।