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बन्ध
इस प्रकार काब्यलक्षण 'शब्दार्थों सहितौ -' आदि में आये हुए, शब्द, अर्थ, साहित्य और कविव्यापार का विवेचन अब तक हमने संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत किया । अब बचते हैं दो पद और वे हैं बन्ध और तद्विदाह्लादकारित्व ।
कुन्तक के अनुसार शब्द और अर्थ के लावण्य और सौभाग्य गुण को परिपुष्ट करनेवाला, एवं वक्रकविव्यापार से सुशोभित होने वाला वाक्य का विशिष्ट सन्निवेश बन्ध कहलाता है । लावण्य से अभिप्राय सन्निवेश को चारुता से है और सौभाग्य से आशय सहृदयाह्लादकारिता है ।
तद्विदाह्लादकारित्व
कुन्तक के अनुसार तद्विदाह्लादकारित्व सहृदयहृदयसंवेद्य होता है । उसे वाणी द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। उसके विषय में कि वह शब्द, अर्थ, और वक्रोक्ति इन तीनों के उत्कर्ष से होता है, साथ ही इन तीनों से भिन्न स्वरूपवाला होता है । संवेय किसी अनिर्वचनीय सौकुमार्य से रमणीय होता है ।
तथा सहृदयहृदय
कुन्तक यही कहते हैं भिन्न उत्कर्ष वाला
तक का मार्ग- गुणविवेक
कन्तक का मार्गगुणविवेचन पूर्णतः मौलिक है। उन्होंने मार्गों को काव्यरचना का कारणभूत स्वीकार किया है। वे मार्ग तीन हैं - ( १ ) सुकुमार ( २ ) विचित्र और ( ३ ) मध्यम या उभयात्मक |
देशविभाग के आधार पर रीतियों का खण्डन
मार्गों का विवेचन करते हुऐ कुन्तक ने कई विप्रतिपत्तियाँ प्रस्तुत की हैं। उन्होंने सबसे पहले गौड, वैदर्भ, आदि देशों पर रखे गये गौडी, वैदर्भी आदि रीतियों तथा गौड या वैदर्भ मार्गों का खण्डन किया है। उसका कहना है कि
रीतियों का नामकरण
( १ ) यदि हम भेद के आधार पर विभिन्न करेंगे तब तो जितने देश हैं उतनी ही रीतियाँ स्वीकार आनन्त्य दोष प्रस्तुत हो जायगा ।
करनी पड़ेगी । श्रतः
( २ ) दूसरी बात काव्यरचना किसी देशविदेश का धर्म नहीं होती, जैसे कि ममेरी बहिन के साथ बिवाह देशादि का धर्म होता है । क्योंकि देश धर्म तो केवल वृद्धों की परम्परा पर आधारित होते हैं । परन्तु काव्यरचना तो शक्ति, व्युत्पत्ति और अभ्यास पर आधारित होती है । शक्ति आदि को देशविशेष का