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तृतीयोन्मेषः साम्यसमाश्रयणाद्वाक्यान्तर्भूतप्रस्तुतपदार्थप्रशंसा ( यथा )लावण्यसिन्धुरपरैव हि केयमत्र
यत्रोत्पलानि शशिना सह सम्प्लवन्ते । उन्मजति द्विरदकुम्भतटी च यत्र
यत्रापरे कदलिकाण्डमृणालदण्डाः ॥८६॥ साम्य के आधार पर वाक्य में अन्तर्भूत प्रस्तुत पदार्थ की प्रशंसा का उदाहरण जैसे-( कोई युवक किसी तरुणी को नदी में स्नान करते हुए देख कर कहता है कि यहाँ यह कौन सी दूसरी (सौन्दर्य) लावण्य की सरिता (प्रवाहित हो रही है ) जिसमें चन्द्रमा के साथ कमल तैर रहे हैं, एवं जिसमें हाथी की कपोलस्थली उभर रही है तथा जहाँ दूसरे कदलीस्तम्भ एवं मृणालदण्ड ( दिखाई पड़ते हैं )। माम्याश्रयणात्सकलवाक्यव्यापकप्रस्तुतपदार्थप्रशंसा ( यथा)छाया नात्मन एव या कथमसावन्यस्य निष्पग्रहा
ग्रीष्मोप्मापदि शीतलस्तलभुवि स्पर्शाऽनिलादेः कुतः । वार्ता वर्षशते गते किल फलं भावीति वार्तंव सा
द्राघिम्णा मुषिताः कियच्चिरमहो तालेन बाला वयम् ॥८॥ साम्य के आधार पर सम्पूर्ण वाक्य में व्यापक प्रस्तुत पदार्थ की प्रशंसा का उदाहरण जैसे
हम कम समझ लोग तालवृक्ष की ऊंचाई से कितने ही समय तक ठगे गए जिसकी छाया अपने ही लिए भलीभाँति ग्रहण करने के योग्य नहीं है वह दूसरे के ग्रहण करने योग्य कैसे हो सकती है। ग्रीष्म की गर्मी की विपत्ति के आने पर जिसके नीचे की ही धरती पर शीतलता नहीं दिखाई देती तो उसकी बायु आदि से शीतल स्पर्श कैसे मिल सकता है । यह कहना कि सौ सालों के बाद इसमें फल लगेगा यह एक कोरी बात ही रह जाती है ।
यहाँ मैंने सुभाषितावली ( श्लो० ८२१) का पाठ ग्रहण किया है क्योंकि 'वार्तावर्षशतैरनेकलवलं' इस प्राचीन पाठ में 'अनेकलवलम्' यह बहुव्रीहिपद किस विशेष्य का विशेषण होगा यह समझ में नहीं आता। पता नहीं डा० डे इसे कैसे संगत मानते हैं। सम्बन्धान्तराभयणाद्वाक्यन्तर्भूतप्रस्तुतपदार्थप्रशंसा ( यथा)इन्दुर्लिप्त इवाञ्जनेन जडिता दृष्टिर्मगीणामिव
प्रम्लानारुणिमेव विद्रुमलता श्यामेव हेमप्रभा।