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तृतीयोग्मेषः सहयोगी होती है उसे ( रूपकालङ्कार को वक्रता की परमार्थता को प्राप्त करा देते हैं ) किससे प्राप्त करा देते हैं-प्रतिभावश अर्थात् अपनी शक्ति की सामर्थ्य से । उस तरह के लौकिक कान्ति के अतिक्रमण कर जाने वाले विषय के गोचर होने पर उसका वर्णन किया जाता है। जहाँ उतना प्रसिद्ध होने के अभाववश प्रसिद्ध व्यवहार का प्रयोग अनुचित सा प्रतीत होता है वहीं दूसरे अलङ्कार को साप लेकर आने वाले ( रूपक ) के पुनरूल्लेख के द्वारा प्रस्तुत किए जाने के नाते सहृदयों के हृदय के साथ संवादी होने के नाते सुन्दर एक उत्कृष्ट परिपाक उत्पन्न हो जाता है । जैसे
___किं तारुण्यतरोः' इत्यादि । इसके बाद कुन्तक ने किसी अन्य श्लोकार्द को भी उदाहरण रूप में उद्धृत् किया है जिसे कि ग० डे पढ़ नहीं सके। इस प्रकार रूपक का विवेचन समाप्त कर कुन्तक 'अप्रस्तुतप्रशंसा' अलङ्कार का विवेचन प्रारम्भ करते हैं ।
'अप्रस्तुतोऽपि विच्छित्तिं प्रस्तुतस्यावतारयन् । यत्र तत्साम्यमाश्रित्य सम्बन्धान्तरमेव वा ॥ २१ ॥ वाक्यार्थोऽसत्यभूतो वा प्राप्यते वर्णनीयताम् ।
अप्रस्तुतप्रशंसेति कथितासावलतिः ॥ २२ ॥ जहाँ उस ( रूपक के लिए उपयोगी ) समानता के अथवा दूसरे ( निमित्तभावादि ) सम्बन्धों के बाधार पर प्रस्तुत ( अर्थात् वर्णन के लिए अभिप्रेत पदार्थ ) की शोभा को उत्पन्न करता हुआ अप्रस्तुत अथवा असत्यभूत भी वाक्यार्थ वर्णन के योग्य बनाया जाता है उसे (आलङ्कारिकों ने) अप्रस्तुतप्रशंसा मलकार कहा है ॥ २१-२२ ॥ ___एवं रूपकं विचार्य तदर्शनसम्पन्निवन्धनामप्रस्तुतप्रशंसां प्रस्तौति
अप्रस्तुतोऽपीत्यादि । अप्रस्तुतप्रशंसेति कथितासावलस्कृतिः-अप्रस्तुतप्रशंसेति नाम्ना सा कथिता-अलङ्कारविद्भिरलस्कृतिः । कीदृशी-यत्र यस्यामप्रस्तुतोऽप्यविवक्षितः पदार्थो वर्णनीयतां प्रति प्राप्यते वर्णनाविषयः सम्पाद्यते । किं कुर्वन्-प्रस्तुतस्य विवक्षितार्थस्य विच्छित्तिमुपशोभामवतारयन् समुल्लासयन् ।।
इस प्रकार रूपक ( अलवार ) का विवेचन कर उसके दर्शन को सम्पत्ति के मूल वाले ( अर्थात् जिसके मूल में रूपक की दर्शनसम्पत्ति अर्थात् तदुपयोगी समता रहती है उस ) अप्रस्तुतप्रशंसा अलवार को प्रस्तुत करते हैं-अप्रस्तुतो:पीत्यादि-कारिका के द्वारा। अप्रस्तुतप्रशंसा यह अगार कहा गया है