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________________ तृतीयोन्मेषः ३३७ चलापाङ्गां दष्टिं स्पृशसि बहुशो बेपथमतीं रहस्याख्यायीव स्वनसि मृदु कर्णान्तिकचरः। करौ व्याधुन्वत्याः पिबसि रतिसर्वस्वमधरं वयं तत्त्वान्वेषान्मधुकर ! हतास्त्वं खलु कृती ।। ६२ ।। ( राजा दुष्यन्त शकुन्तला पर मंडराते हुए भ्रमर को देखकर कहते हैं कि ) हे भ्रमर ! तू चन्चल नेत्रप्रान्त वाली तथा कम्पित होती हुई दृष्टि का बार-बार स्पर्श कर रहा है। रहस्य की बात बताने वाले के समान कान के पास जाकर मधुर गुन्जन कर रहा है तथा हायों को हिलाती हुई ( शकुन्तला ) के काम के सर्वस्व रूप अधर का पान कर रहा है। निश्चय ही हम तो तथ्य के अनुसन्धान में ( अर्थात् मेरे लिए यह ग्राह्य है या नहीं यही पता लगाने में ) मारे गये, परतू ( तो सचमुच ) कृतार्थ हो गया ॥ ६२॥ अर्थ परमाथः-प्रधानवृत्तेः शृङ्गारस्य भ्रमरसमारोपितकान्तवृत्तान्तो रसघदलङ्कारः शोभातिशयमाहितवान् । यथा वा ___ कपोले पत्राली ।। ६३ ॥ इत्यादौ । तदेवमनेन न्यायेन क्षिपो हस्ताचलग्नः ।। ६४ ।। इत्यत्र रसवदलङ्कारप्रत्याख्यानमयुक्तम् । सत्यमेतत्, किन्तु विप्रलम्भशृङ्गारता तत्र निवार्यते | शेषस्य पुनस्तत्तल्यवृत्तान्ततया रसवदलवारत्वमनिवार्यमेव । न चालङ्कारान्तरे सति रसवदपेक्षानिबन्धनः संसृष्टि-सङ्करव्यपदेशप्रसङ्गः प्रत्याख्येयतां प्रतिपद्यते । यथा इसका विश्लेषण करते हैं कि-यहाँ वास्तविक अर्थ यह है-भ्रमण पर आरोपित किए गए नायक के व्यवहार वाले (रूपक अलङ्कार ने जो कि रस के तुल्य होने के कारण रसघदलंकार हो गया है अतः उसी) रसवदलंकार ने मुख्य रूप से स्थित श्रृङ्गार रस की शोभा में उत्कर्ष को उत्पन्न कर दिया है। अथवा जैसे ( उदाहरण संख्या ( २।१०१ पर पूर्वोद्धृत ) 'कपोले पत्राली'। इत्यादि में रसवदलंकार है)। (इस पर पूर्वपक्षी प्रश्न करता है कि इस प्रकार यदि आप रसवदलंकार स्वीकार करते हैं ) तो इस ढंग से ( उदाहरण संख्या ३३४३ पर पूर्वोदाहत ) २२ व० जी०
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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