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________________ i nstitute P r imantrithi-imiri - । . . .. . तृतीयोन्मेषः ३१७ होने के कारण समस्त अचेतन पदार्थों को ( प्रियतमामय ) ही देखते हुए नायक का । उन लता आदि जड़ पदार्थों में ) उस (प्रियतमा) की समानता का आरोप एवं उसके धर्म का आरोप बिना उपमा एवं रूपक आदि काव्य अलङ्कारों का प्रयोग किए किसी भी प्रकार सम्भव नहीं क्योंकि ये वाक्य ही उन्हीं अलंकारों के चिन्हों को प्रस्तुत करने वाले हैं। ठीक है यह बात । लेकिन विशेषण समास वाले पक्ष में अलंकार शब्द के कथन के बिना केवल 'रसवान्' है यही प्रयोग प्राप्त होता है। यदि 'रसवान् अलंकार' ऐसी प्रतीति स्वीकार की जाती है तो वह भी युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता......। ___ रसवान् का अलंकार ( रसवदलंकार है ) इस प्रकार षष्ठी समास वाला पक्ष भी स्पष्ट रूप से समन्वित नहीं होता। जिस किसी का भी काव्यत्व रसवत्त्व ही होता है। तथा जिस ( रसवस्व ) के उत्कर्ष का कारणभूत, सहृदयों को आह्लादित करनेवाला उस प्रकार का काव्य निर्माण योग्य होता है इसलिए उसका अलंकार ( रसवदलंकार होगा ) इस आधार पर तो सभी रूपक आदि अलंकारों की रसवदलंकारता ही युक्तिसंगत होगी, जिस किसी भी अलंकार में रसवत्व होने के कारण। और यही बात विशेषण समास वाले पक्ष में भी होगी। किंच, तदभ्युपगम प्रत्येकमुत्स्खलितलक्षणोल्लेखवि......कृतपरिपोषतया लब्धात्मनामलङ्काराणां प्रातिस्विकलक्षणाभिहितातिशयव्यतिरिक्तमनेन किंचिदाधिक्यमास्थीयते । तस्मात्तल्लक्षणकरणवैचित्र्यं प्रतिवारितप्रसरमेव परापतति । न चैवंविधविषये रसवदलंकारव्यवहारः सावकाशः, तज्ज्ञैस्तथावगमात्, अलङ्काराणां च मुख्यतया व्यवस्थानात् । और फिर उसे स्वीकार कर लेने पर भी "परिपुष्टि होने के कारण अलङ्कारता को प्राप्त अलंकारों के अलग-अलग लक्षणों में प्रतिपादित किए गये अतिशय से भिन्न कुछ आधिक्य इसके द्वारा स्थापित किया जाता है। अतः उन अलंकारों के लक्षण करने का वैचित्र्य प्रति वारित प्रसर अर्थात् व्यर्थ ही सिद्ध होने लगता है (क्योंकि सर्वत्र काव्य में रस होगा अतः सभी अलंकार रसवत् ही होंगे तो प्रारम्भ से लेकर आज तक आलंकारिकों ने जो उपमादि अलंकार के वैचित्र्य का बराबर प्रतिपादन किया है वह व्यर्थ हो जायगा क्योंकि सभी ( रसवदलंकार तो होगें ही) ......
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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