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वक्रोक्तिजीवितम्
यथाविद्धं याति स्खलितमभिसंधाय बहुशो नवभावेनेयं
मसना सा परिणता ॥ ४१ !!
अथवा जैसे—
तरंगरूपी भौहों की वाली, तथा हड़बड़ी के ( यह नदी ) जिस प्रकार कुटिल गति से बह रही है अपराधों को सोचकर वह परिवर्तित हो गई है ॥ ४१ ॥
वक्रता वाली, क्षुब्ध पक्षियों की पङ्क्ति रूपी करधनी कारण ढीले हो गए वस्त्र सरीखे फेन को खींचती हुई ( शिलादि से ) बार बार स्खलित होती हुयी तो ऐसा लगता है ) मानों अनेकों बार ( मेरे ) मानिनी ( प्रियतमा उर्वशी ) नदी रूप में यह
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अत्ररसत्वमलङ्कारश्च प्रकटं प्रतिभासेते । तस्मान्न कथंचिदपि तद्विवेकस्य दुरबधानता । तेन रसवतोऽलङ्कार इति षष्ठीसमासपते शब्दार्थयार्न किंचिदसङ्गतत्वम्, रसपरिपोषपरत्वादलङ्कारस्य तन्निबन्धनमेव रसवत्त्वम् । रसवांश्चासावलङ्कारश्चेति विशेषणसमासपक्षे ......। तथा चैतयोरुदाहरणयोर्लतायाः सरितश्रांहीपन विभावत्वेन वल्लभाभावितान्तःकरणतया नायकस्य तन्मयत्वेन ( निश्चेतन ? ) - मेव पदार्थजातं सकल मवलोकयतः तत्साम्यसमारोपणं तद्धर्माध्यारोपणं चेत्युपमारूपककाव्यालङ्कारयोजनं विना न केनचित् प्रकारेण घटते, तल्लक्षणवाक्यत्वात् । सत्यमेतत्, किन्तु 'अलंकार' - शब्दाभिधानं विना विशेषणसमा सपक्षे केवलस्य रसवानित्यस्य प्रयोगः प्राप्नोति । रसवानलङ्कार इति चेत् प्रतीतिरभ्युपगम्यते तदपि युक्तियुक्ततां नार्हति .... देरभावात् । रसवतोऽलंकार इति षष्ठीसमासपक्षोऽपि न सुस्पष्टसमन्वयः । यस्य कस्यचित् काव्यत्वं रसवत्त्वमेव । यस्यातिशयत्वनिबन्धनं तथाविधं तद्विदाह्लादकारि काव्यं करणीयमिति तस्यालङ्कार इत्याश्रिते सर्वेषामेत्र रूपकादीनां रसवदलङ्कारत्वमेव न्यायोपपन्नतां प्रतिपद्यते । अलंकारस्य यस्य कस्यचिद्रसस्वाद्। विशेषणसमासेऽप्येषैव वार्त्ता ।
यहाँ रसरूपता एवं अलंकार साफ-साफ दिखाई पड़ते हैं । इसलिए उनके विवेचन में किसी भी प्रकार की कठिनाई नहीं है । इसलिये रसवान् का अलंकार ( रसवदलंकार होता है ) इस प्रकार षष्ठी समास वाले पक्ष में शब्द तथा अर्थ की कोई असंगति नहीं है; क्योंकि अलंकार के रसपरिपोष रूप होने के कारण रसवत्ता उसका कारण ही है । 'रसवान् अलंकार' इस विशेषण समास के पक्ष में... और फिर इन दोनों उदाहरणों में लता एवं नदी के उद्दीपन विभाव होने से, प्रियतमा के निरन्तर ध्यान से परिपूर्ण हृदय