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तृतीयोन्मेषः
२९७ भाव अर्थात् वर्णन किये जाने वाले पदार्थों का स्वरूप अर्थात् स्वभाव । कैसा ( स्वरूप ) दो प्रकार का। अर्थात् जिसके दो भेद हैं वह इस शब्द से बताया गया है। स्मरण किया गया है अर्थात् विद्वानों ने स्वीकार किया है। किन पदार्थों का ( स्वरूप )-चेतनों एवं अचेतनों का। चेतन से अभिप्राय है प्राणियों से जिनके अन्दर ज्ञान होता है। जडों का अर्थ है उनसे भिन्न एवं चेतनतारहित अचेतन पदार्थ। यही दो प्रकार के धर्मियों का होना धर्म के दो प्रकार का होने का कारण है। ( पदार्थों का ) कैसा स्वरूप ( दो प्रकार का होता है ) सरस स्वभाव के औचित्य से सुन्दर ( स्वरूप)। सरस अर्थात् अपूर्ण परिपोष के कारण कोमल जो स्वभाव अर्थात् मुख्य धर्म उसका जो औचित्य अर्थात् उपयुक्तता प्रकरण के लिये उपयुक्त दोषहीनता उसके कारण सुन्दर अर्थात् सुकुमार सहृदयों को आनन्दित करनेवाला स्वरूप ( दो प्रकार का होता है ) । एतदेव द्वैविध्यं विभज्य विचारयतितत्र पूर्व प्रकाराभ्यां द्वाभ्यामेव विभिद्यते । सुरादिसिंहप्रभृतिप्राधान्येतरयोगतः ॥६॥ इन्हीं दो प्रकारों का अलग-अलग विवेचन करते हैं
उनमें से पहला (चेतन पदार्थ) देवादि तथा सिंहादि के प्राधान्य एवं अप्राधान्य के कारण दो ही प्रकार से (पुनः) विभक्त हो जाता है ।। ६ ॥
तत्र द्वयोः स्वरूपयोर्मध्यात् पूर्व यत्प्रथमं चेतनपदाथसंबन्धि तद् द्वाभ्यामेव राश्यन्तराभावात् प्रकाराभ्यां विभिद्यते भेदमासा. दयति, द्विविधमेव संपद्यते । कस्मात्-सुरादिसिंहप्रभृतिप्राधान्येतरयोगतः । सुरादिः त्रिदशप्रभृतयो ये चेतनाः सुरासुरसिद्धविद्याधरगन्धर्वप्रभृतयः, ये चान्ये सिंहप्रभृतयः केसरिप्रमुखास्तेषां यत्प्राधान्यं मुख्यत्वमितरदप्राधान्यं च ताभ्यां यथासंख्येन प्रत्येकं यो योगः संबन्धस्तस्मात् कारणात् ।
उनमें अर्थात् दोनों (चेतन एवं अचेतन पदार्थों) के स्वरूप के मध्य से पूर्व अर्थात् जो पहला चेतन पदार्थों से सम्बन्ध रखनेवाला ( स्वरूप ) है वह भिन्न-भिन्न समूहों ( अथवा वर्गों) के कारण दो ही प्रकारों से विभक्त हो जाता है अर्थात् उसके दो भेद होते हैं और वह दो प्रकार का ही हो जाता है। कैसे ( वह दो ही प्रकार का होता है )-देवादि एवं सिंह आदि के प्राधान्य एवं अप्राधान्य रूप सम्बन्ध के कारण। सुरादि अर्थात् देवता