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। वक्रोक्तिजीवितम् तथा यही अत्यन्त युक्तिसङ्गत है। क्योंकि श्रेष्ठ कवियों को कभी भी वर्ण्यमान पदार्थ के औचित्य के अनुसार ( वस्तु की ) अद्वितीय ढङ्ग से केवल सहज सुकुमारता ही उन्मीलित करना अभिप्रेत होता है, तथा कभीकभी नाना प्रकार की रचनाओं की विचित्रता से युक्त सौन्दर्य को ( उन्मोलित करना अभिप्रेत होता है ) यहाँ पहले पक्ष में ( अर्थात् जब केवल सहज रमणीयता का प्रतिपादन ही कवि को अभिप्रेत होता है तब ) रूपक आदि अलङ्कारों की वैसी प्रधानता नहीं होती। जब कि दूसरे पक्ष में ( जब केवल रचनावेंचिश्य का चारुत्व कवि को अभिप्रेत होता है तब ) वह ( रूपकादि अलङ्कार समुदाय ) ही भली-भांति प्रकाशित होता है। तो इस ढङ्ग से सहज रमणीयता रूप पदार्थ के सर्वोत्कृष्ट धर्म का अलङ्कार्य होना ही युक्तिसङ्गत प्रतीत होता है न कि अलङ्कार होना। क्योंकि उत्कृष्टता से हीन धर्म से युक्त वस्तु अलङ्कृत होने पर भी पिशाचादि की भाँति सहृदयों को आनन्दित करने के अभाव के कारण बेकार ही होती है-इस प्रकार इस अति प्रसङ्ग को समाप्त करते हैं। ___अथवा यदि वर्ण्यमान वस्तु के औचित्य की महत्ता से मुख्य रूप से वर्णित किया गया पदार्थ का उत्कर्षयुक्त स्वभाव ही अपने माहात्म्य से अन्य अलङ्कार को न सह सकने के कारण खुद ही सोन्दर्यातिशय से युक्त होने के कारण, अलंकार्य होते हुए भी अलङ्कार कहा जाता है तो यह हमारा ही पक्ष है। क्योंकि उससे भिन्न स्थिति वाले दूसरे अलङ्कार को तिरस्कृत करने के अभिप्राय से ( यदि स्वभावोक्ति को) अलङ्कार कहा जाता है तो हम विवाद नहीं करते। एवमेव वर्ण्यमानस्य वस्तुनो वक्रतेत्युतान्या काचिदस्तीत्याह
अपरा सहजाहार्यकविकौशलशालिनी । निर्मितिर्नूतनोल्लेखलोकातिक्रान्तगोचरा ॥२॥ इस प्रकार वर्णन की जाने वाली वस्तु की यही एक वक्रता है अथवा कोई दूसरी भी इसे ( ग्रन्थकार ) बताते हैं--
कवि की स्वाभाविक एवं व्युत्पत्तिजन्य निपुणता से सुशोभित होने वाली एवं अपूर्व वर्णन के कारण लोकोत्तर विषय ( का निरूपण करने ) वाली ( कवि की ) सृष्टि ( वर्ण्यमान वस्तु की ) दूसरी वक्रता होती है ॥ २ ॥
अपरा द्वितीया वर्ण्यमानवृत्तेः पदार्थस्य निर्मितः सृष्टिः। वक्रतेति संबन्धः। कीदृशी-सहजाहार्यकविकौशलशालिनी। सहज स्वाभावकमाहार्य शिक्षाभ्यासममुल्लासितं च शक्तिव्युत्पत्तिपरिपाकप्रौढं