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वक्रोक्तिजीवितम् सितवह्निदाहवक्षदक्षिगवातव्यजनसमानतां समययत् कामपि वाक्यवका समुद्दीपयति । 'सु' - 'दुः-शब्दाभ्यां च प्रियाविरहस्याशक्य प्रतीकारता प्रतीयते । यथा च
यहाँ पर परस्पर अत्यन्त असह्यता को उद्दीत करने की सामर्थ्य से संयुक्त प्रियतमा के वियोग एवं वर्षा ऋतु, दोनों को समान कालिकता का प्रतिपादन करने में तत्पर दो बार प्रयुक्त 'च' शब्द, एक ही समय में उत्पन्न अग्नि, एवं जलाने में चतुर दक्षिणवन रूप पंखे की समानता का समर्थन करता हआ किसी (अपूर्व) श्लोक के वक्रभाव को प्रकाशित करता है। 'सु' एवं 'दुः' शब्दों के द्वारा प्रेयसी के वियोग का निराकरण असम्भव है। इस बात की प्रतीति होती है। तथा जैसे
मुहुरङ्गुलिसंवृताधरोष्ठं प्रतिषेधाक्षरविक्लवाभिरामम् । मुखमंसविवति पक्ष्मलाक्ष्याः कथमप्युन्नमितं न चुम्बितं तु॥१०१॥ 'अभिज्ञान शाकुन्तल' में राजा दुष्यन्त कहता है कि
सुन्दर बरौंनियों वाली आंखों से युक्त, बार-बार अंगुलियों से ढंके.अधर वाले, एवं ('नहीं ऐमा नहीं' इस प्रकार) निषेध के अक्षरों के अस्पष्ट उच्चारण के कारण रमणीय ( उस प्रियतमा शकुन्तला के ) कन्धे की ओर मुड़े हुए मुख को किसी प्रकार उठाया तो पर चूमा नहीं ॥ ११९ ॥
अत्र नायकस्य प्रथमाभिलाषविवशवृत्तेरनुभवस्मृतिसममुल्लिखिततत्कालसमुचिततद्वदनेन्दुसौन्दर्यस्य पूर्वपरिचुम्बनस्खलितसमुद्दीपितपश्चात्तापवशावेशद्योतनपरः 'तु'-शब्दः कामपि वाक्यवक्रतामुत्तेजयति।
यहाँ पर पहली कामना के कारण बेकाबू हो उठी हुई चित वृत्ति वाले नायक की पूर्वानुभव की स्मृति से चित्रित कर दिए गए हुए उस समय के लिए समीचीन उस ( शकुन्तला ) के मुखचन्द्र के सौन्दर्य का चुम्बन न ले पाने के कारण प्रखर हो उठे हुए पश्चात्तापवश उत्पन्न पहले के आवेश को प्रकाशित करने में लगा हुआ 'तु' शब्द एक लोकोत्तर वाक्यवक्रता को उद्दीत कर देता है।
एतदुत्तरत्र प्रत्ययवक्रत्वमेवंविधप्रत्ययान्तरवक्रभावान्तर्भूतत्वात् पृथक्त्वेन नोक्तमिति स्वयमेवोत्प्रेक्षगीयम् । यथा___ इन उपसर्गादिकों के आगे लगने वाले प्रत्ययों की वक्रता इस प्रकार की दूसरी प्रत्यय वक्रताओं में अन्तर्भूत होने के कारण अलग से नहीं बताई गई, उसकी ( सहृदयों को ) स्वयं उत्प्रेक्षा कर लेनी चाहिए । जैसे