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द्वितीयोन्मेषः से । तो इसका आशय यह है कि--वाक्य के एकमात्र प्राण रूप में जो रसादि स्फुरित होता है उसके प्रकाशन के द्वारा ( जो जीवित भूत होता है )। जैसे
वैदेही तु कथं भविष्यति हहा हा देवि धीरा भव ॥२०॥
लेकिन हाय ( अत्यन्त सुकुमारी ) जानकी किस दशा में होगी? हा देवि ! धैर्य धारण करो ॥ ५०८ ॥ __अत्र रघुपतेस्तत्कालज्वलितोद्दीपनविभावसंपत्समुल्लासितः संभ्रमो निश्चितजनितजानकोविपत्तिसंभावनस्तत्परित्राणकरणोत्साहकारणतां प्रतिपद्यमानस्तदेकाग्रतोल्लिखितसाक्षात्कारस्तदाकारतया विस्मृतविप्रकर्षः प्रत्यारसपरिस्पन्दसुन्दरो निपातपरंपराप्रतिपद्यमानवृत्तिर्वाक्येकजीवितत्वेन प्रतिभासमानः कामपि वाक्यवक्रतां समुन्मीलयति । तु-शब्दस्य च वक्रभावः पूर्वमेव व्याख्यातः। यथा वा
यहाँ वर्षाकाल में प्रकाशित उद्दीपन विभावों की सामग्री से उत्पन्न निश्चित रूप से उत्पन्न जानकारी की विपत्ति की सम्भावना वाला राम का संवेग सीता के प्राणों की रक्षा करने के उत्साह का कारण बनता हुआ वैदेही के प्रति एकाग्रता के कारण उनके साक्षात्कार को विचित्र कर देने वाला तदाकारता के कारण दुरवस्था को भुला देने वाला नवीन रस के संस्फुरण के कारण सुन्दरता निपातपरम्पराओं के कारण प्राप्तसत्ताक होकर वाक्य के एकमात्र प्राण रूप से प्रतीत होता हुआ किसी अनिर्वचनीय वाक्यवक्रता को प्रस्तुत करता है । तथा 'तु' शब्द की वक्रता की व्याख्या पहले ही (उदा० सं० २।२७ की व्याख्या करते समय ) की जा चुकी है । अथवा जैसे
प्रयमेकपदे तया वियोगः प्रियया चोपनतः सुदुःसहो मे। नववारिधरोदयादहोभिर्भवितव्यं च निरातपत्वरम्यैः ॥१०॥
( विक्रमोर्वशीय में उर्वशी के विरह से पीड़ित होकर पुरूरवा दुःख प्रकट करता है कि जिनके भाग्य खराब हो जाते हैं उनके एक दुःख में दूसरा दुःख लगा ही रहता है क्योंकि)
(एक ओर ) एकाएक मुझे उस प्रियतमा का अत्यन्त असह्य वियोग प्राप्त हुआ तथा ( दूसरी ओर ) नये-नये बादलों के आकाश में छा जाने से उष्णतार हित होने के कारण रमण करने योग्य दिन आ गए ॥ १०९।।
प्रत्र द्वयोः परस्परं सुदुःसहत्वोद्दीपनसामर्थ्यसमेतयोः प्रियाविरहवर्षाकालयोस्तुल्यकालत्वप्रतिपादनपरं'च'-शब्दद्वितयं समसमयसमुल्ल