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________________ द्वितीयोन्मेषः २५७ स्तत्कुसुमशनिकरनिपात कातरान्तःकरणा:किमपि कम्पामहे चकितचेतसः संपद्यामहे इति प्रियतमाविरहविधुरचेतसः सरसहयस्य कस्यचिदेतदभिधानम् । यहाँ व्यवस्यन्ति ( में लट् ), जम्भते ( में लट्, कर्ता ( में लुट् ) एवं कम्पामहे ( में लट् )-ये प्रत्येक निश्चित काल का प्रतिपादन करने वाले प्रत्यय पद के उत्तरार्ध को किसी अपूर्व वक्रता को व्यक्त करते हैं। जैसे कि पहले पहल अवतीर्ण हुए वसन्तकाल की सुकुमारता से अत्यधिक शोभायमान पदार्थ समुदाय के प्रसार से भलीभाँति उद्दीप्त किये गये ऐश्वर्य से सुशोभित होने के कारण थोड़े से ही वसन्त के संयोग से उत्पन्न अनुपम __ पराक्रम वाले कामदेव का सहृदय हृदयों को कष्ट प्रदान करने वाला कोई उत्साह उत्पन्न हो गया है। इसलिए इस अनुमान के द्वारा ( कि यदि अभी ही ऐसा हाल है तो आगे चलकर ) वसन्त ऋतु के वैभव विलास के पूर्णतया परिपुष्ट हो जाने पर मनिनियों के मान को खण्डित कर देने के कारण ढीठ तथा उत्पन्न स्वाभाविक सुकुमारता की सम्पत्ति वाला और उत्पन्न हो गए समुचित विजय की इच्छा के अवसर वाला यह (कामदेव ) क्या करेगा? इस प्रकार सोचते हुए उस ( कामदेव ) के पुष्पबाणों के गिरने से भयभीत हृदय वाले (हम ) कुछ काँप रहे हैं अर्थात् घबड़ा रहे हैं ऐसी कोई प्रियतमा के वियोग से दुखी हृदय वाले किसी सहृदय की यह उक्ति है । एवं कालवक्रतां विचार्य क्रमसमुचितावसरां कारकवक्रतां विचारयति इस प्रकार कालवक्रता का विवेचन कर क्रमानुकूल अवसरप्राप्त कारकवक्रता का विवेचन करते हैं या कारकसामान्यं प्राधान्येन निबध्यते । तत्वाध्यारोपणान्मुख्यगुणभावाभिधानतः ॥२७॥ परिपोषयितुं काश्चिद्भङगीभणितिरम्यताम् । कारकाणां विपर्यासः सोक्ता कारकवक्रता ॥२८॥ यहाँ प्रधान की गौणता का प्रतिपादन करने से एवं ( गौण में ) मुख्यता का आरोप करने से किसी ( अपूर्व ) भंगिमा के द्वारा कथन की रमणीयता को परिपुष्ट करने के लिए कारक सामान्य का प्रधान रूप से प्रयोग किया जाता है, (इस प्रकार के) कारकों के परिवर्तन से युक्त उसे कारक वक्रता कहा गया है ।। २७-२८॥ १७५० जी०
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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