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वक्रोक्तिजीवितम्
श्रत्र वल्लभाविरहवैधुर्यकातरान्तःकरणेन भाविनः समयस्य संभावनानुमानमाहात्म्यमुत्प्रेक्ष्य उद्दीपनविभावत्वविभवविलसितं तत्परिस्पन्दसौन्दर्यसन्दर्शनासहिष्णुना किमपि भयविसंण्डुलत्वमनभूय शङ्काकुलत्वेन केनचिदेतदभिधीयते यदचिराद् भविष्यन्ति पन्यानो मनोरथानामप्यलङ्घनीया इति भविष्यकालाभिधायी प्रत्ययः कामप्यपराधक्रतां विकासयति । यथा वा
यहाँ पर भविष्य में होने वाले समय की सम्भावना को कल्पना की महिमा की उत्पेक्षा करके उद्दीपन विभाव वैभव-विलास को एवं उसके स्वरूप की सुन्दरता को देखना न सहन कर सकने वाले एवं भय के कारण किसी अप्रकृतिस्थता का अनुभव कर शंका से व्याकुल हो गये एवं प्रियतमा के वियोग के दुःख से भयभीत हृदय कोई इस प्रकार कहता है— कि शीघ्र ही रास्ते मनोरथों के लिए भी दुर्लभ हो जायँगे - इस प्रकार यहाँ भविष्य काल का प्रतिपादन करने वाला ( लट् ) प्रत्यय किसी अपूर्व ) उत्तरार्द्ध की वक्रता को व्यक्त करता है । अथवा जैसे—
यावत्कचिदपूर्वमार्द्रमनसामावेदयन्तो
नवाः
सौभाग्यातिशयस्य कामपि दशां मन्तु व्यस्यन्त्यमी । भावस्तावदनन्यजस्य विधुरः कोऽप्युद्यमो जृम्भते पर्याप्त मधुविभ्रमे तु किमयं कर्तेति कम्पामहे ॥ ६६ ॥
जबकि आर्द्रहृदय लोगों को कोई अपूर्व ( आनन्द ) प्रदान करते हुए ये अभिनव पदार्थ रमणीयता के उत्कर्ष किसी अनिर्वचनीय अवस्था को प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हैं तभी कामदेव का कोई विकल कर देने वाला उद्योग दिखाई पड़ने लगा है तो भला वसन्त वैभव के पूर्ण हो जाने पर यह क्या करेगा ? इस लिए हम कांप रहे हैं ।। ९६ ।।
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अत्र व्यवस्यन्ति जृम्भते कर्ता कम्पामहे चेति प्रत्ययाः प्रत्येकं प्रति नियतालाभिधायिनः कामपि पदपरार्धवक्रतां प्रख्यापयन्ति । तथा चप्रथमतरावतीर्णमधुसमयसौकुमार्य समुल्लसित सुन्दर पदार्थसार्थसमुन्मेषसमुद्दीपित सहज विभवविलसितत्वेन मकरकेतोर्मनाङ्मात्रमाधवसानाथ्यसमुल्लसितातुलशक्तेः सरसहृदय विधुरता विधायी कोऽपि संरम्भः समुज्जृम्भते । तस्मादनेनानुमानेन परं परिपोषमधिरोहति कुसुमाकरविभवविभ्रमे मानिनी मानवलनदुर्ललितसमुचित सहज सौकुमार्यसंपत्संज नित समुचित जिगीषावसरः किमसौ विधास्यतीति विकल्पयन्त