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________________ २४४ वक्रोक्तिजीवितम् था, इसी बात को राम दूसरे ढंग से प्रस्तुत करते हैं । जैसे - हे भयशीले ! अर्थात् सहज सुकुमारता के कारण अधीर हृदय वाली सीते ! उस प्रकार के भयावह (नृशंस ) कार्य को करने वाला रावण जिस रास्ते से तुम्हें अपहरण कर ले गया था उसे साक्षात् दिखाई देने वाले विग्रह वाली इन लताओं ने मुझे दिखाया था । उन लताओं का रास्ता बताना वस्तुतः उनके जड़ होने के कारण सम्भव नहीं है अतः यहाँ पर प्रतीयमान उत्प्रेक्षा रूप अलङ्कार कवि को अभीष्ट है । जैसे कि तुम्हारी भयशीलता, रावण की नृशंसता तथा मेरी भी तुम्हारी रक्षा करने के प्रयास की तत्परता का विचार कर नारीस्वभाव होने के कारण कृपालु हृदय होने के नाते एवं अपने विषय के ( अर्थात् स्त्री स्वरूप के ) अनुरूप पक्षपात की महत्ता के कारण इन्होंने कृपापूर्वक ही मुझे रास्ता बताया था । किस साधन के द्वारा ( इन्होंने रास्ता बनाया था ) – झुके हुए पल्लवों से युक्त डालों के द्वारा अर्थात् इशारे से बताया था । क्योंकि वागिन्द्रिय के अभाव के कारण बोलने में अशक्त थीं । जैसा कि देखा भी जाता है कि जो कुछ लोग न बोलते हुए रास्ता बताते हैं वे उसी ओर अपने कर पल्लवों से युक्त भुजाओं को घुमाकर के ही ( रास्ता बताते हैं ) इसलिये ( लताओं का उस प्रकार भाग बताना ) युक्तिसङ्गत है । और जैसे कि यही इसका उदाहरण रूप दूसरा श्लोक भी है कि मृग्यश्च दर्भाङ्कुर निर्व्यपेक्षास्तवागतिज्ञं समबोधयन्माम् । व्यापारयन्त्यो दिशीद क्षिणस्यामुत्पक्ष्मराजीनि विलोचनानि ॥ ८१ ॥ तुम्हारी गति से अनभिज्ञ ( अर्थात् तुम किस मार्ग से गई यह न जानने वाले) मुझे (अपने भक्ष्य ) कुश के अंकुरों से निस्पृह होकर ( अर्थात् कुशाङ्कुरों का खाना बन्द कर ) दक्षिण दिशा की ओर उठी हुई पालकों से सुशोभित होने वाने अपने नेत्रों की प्रवृत्त करती हुई मृगियों ने ( तुम्हारे गमन-मार्ग को आंख के इशारों से ) भली-भांति बताया था ।। ८१ ।। हरिण्यश्व मां समबोधयन् । कोदृशम् -- तवागतिज्ञम्, लताप्रदशितमार्गमजानन्तम् । ततस्ताः सम्यगबोधयन्निति, यतस्तास्तदपेक्षया किंचित्प्रबुद्धा इति । ताश्व कीदृश्यः -- तथा विधवैशस संदर्शनवशाद् दुःखित्वेन परित्यक्ततृणग्रासाः । किं कुर्वाणाः -- तस्यां दिशि नयनानि समर्पयन्त्यः । कीदृशानि -- ऊर्ध्वकृत पक्ष्मपङ्क्तीनि । तदेवं तथा विधस्थानयुक्तत्वेन दक्षिणां दिशमन्तरिक्षेण नोतेति संज्ञेया निवेदयन्त्यः । श्रत्र वृक्षमृगादिषु लिंगान्तरेषु संभवत्स्वपि स्त्रीलिंगमेव पदार्थौचित्या
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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