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उदाहरण रूप में उन्होंने ध्वन्यालोक वृत्ति के मङ्गलश्लोक - ( स्वेच्छाकेसरिणः " इत्यादि को उद्धृत किया है। इससे स्पष्ट है कि कुन्तक ध्वन्यालोक के कारिकांश एवं वृत्त्यंश दोनों से पूर्णतः परिचित थे । अतः इसमें संशय नहीं रह जाता कि वे श्रानन्दवर्द्धन के परवर्ती थे ।
( २ ) वैसे तो उद्धरण उन्होंने राजशेखर विरचित 'विशालभञ्जिका' श्रादि से भी दिए हैं किन्तु नामोल्लेख पूर्वक 'प्रकरणान्तर्गत स्मृत प्रकरणरूप' प्रकरणवक्रता का उदाहरण देते हुए 'बालरामायण' से उद्धरण प्रस्तुत किया है
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'यथा बालरामायणे चतुर्थेऽङ्के लङ्केश्वरानुकारी नटः प्रहस्तानुकारिणा नटेनानुवर्त्यमानः
कर्पूर इव दग्धोऽपि शक्तिमान यो जने जने । शृङ्गारबीजाय तस्मै कुसुमघन्दने ॥'
नमः
इतना ही नहीं, राजशेखर का एक विचित्रमार्गानुयायी कवि के रूप में माम्ना निर्देश भी किया है -
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'तथैव च विचित्रवत्वविनम्मितं हर्षचरिते प्राचुर्येण भट्टबाणस्य विभाव्यते । भवभूति राजशेखरविरचितेषु बन्धसौन्दर्यसुभगेषु मुक्तकेषु परिदृश्यते । २
इस विषय में कोई संशय नहीं किया जा सकता कि दोनों श्राचार्यों में राजशेखर ही परवर्ती थे । वे स्पष्ट रूप से आनन्द का नाम्ना निर्देश करते हैं'प्रतिभाव्युत्पत्योः प्रतीमा श्रेयसीत्यानन्दः । सा हि कनेरव्युत्पत्तिकृतं दोषमशेषमाच्छादयति । तदाह :
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व्युत्पत्तिकृतो दोषः शक्त्या संवियते कविः ।
यस्त्वशक्तिकृतस्तस्य झगित्येवावभासते ॥"
अतः निश्चित रूप से कुन्तक के काल की पूर्व सीमा राजशेखर के काल के बाद निर्धारित होती है ।
राजशेखर का काल
राजशेखर अपने तीन रूपों - 'विद्वशालभञ्जिका', 'कर्पूरमञ्जरी' तथा 'बालभारत' में अपने को महेन्द्रपाल का गुरु बताया है
(क) 'रघुकुलतिलको महेन्द्रपालः सकलकलानिलयः स यस्य शिष्यः ४ (ख) 'रहुडलचूडामणियो महिन्दवालस्स को अ गुरु ।"
१. ध्वन्या० पृ० ४, उधृत व० जी० पृ० ७८ ।
२. व० जी० पृ० ११५ ।
४. विशालभञ्जिका १२२६ ।
३. का० मी० पृ० ७५-७६ ।
५. कर्पूरमंजरी १५ ।
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