________________
द्वितीयोन्मेषः
२२३ सत्स्वेव कालश्रवणोत्पलेषु सेनावनालीविषपल्लवेषु । गाम्भीर्यपातालफणीश्वरेषु खड्गेषु को वा भवतां मुरारिः॥४६॥ 'अत्र कालश्रवणोत्पलादिसादृश्यजनितप्रत्यासत्तिविहितमभेदोंपचारनिबन्धनं तत्वमध्यारोपितम् ।
'पादि'-ग्रहणादप्रस्तुप्रशंसाप्रकारस्य कस्यचिदन्यापदेशलक्षणस्योपचारवक्रतैव जीवितत्वेन लक्ष्यते।
मृत्यु रूप श्रवणों के ( सजाने हेतु ) कमलरूप, या सैन्यरूप वनवीथिका के विष किसलयभूत, या गम्भीरतारूपी पाताल के ( धारण करने वाले ) अहिरतिरूप आपके खड्गों के स्थित रहने पर मुरारि अर्थात् विष्णु क्या चीज हैं ।। ४९ ॥
( 'यन्मूला सरसोल्लेखा रूपकादिरलकृतिः' में रूपक के साथ ) आदि के ग्रहण करने से किसी अन्योक्तिरूप अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार के प्रकारविशेष की भी प्राणभूता उपचारवक्रता ही परिलक्षित होती है।
तथा च किमपि पदार्थान्तरं प्राधान्येन प्रतीयमानतया चेतसि निधाय तथाविधलक्षणसाम्यसमन्वयं समाश्रिय पदार्थान्तरमभिवोय. मानतां प्रापयन्तः प्रायशः कवयो श्यन्ते । यथा
और जैसा कि कविजन अधिकतर मुख्यतया किसी दूसरे पदार्थ को गम्य रूप में अपने हृदय में निहित कर उसी प्रकार के स्वरूप के सादृश्यरूप सम्बन्ध को आधार बनाकर दूसरे पदार्थ का प्रतिपादन करते हुए दिखाई पड़ते हैं । जैसे
अनर्घः कोऽप्यस्तस्तव हरिण हेवाकमहिमा स्फुरत्येकस्यैव त्रिभुवनचमत्कारजनकः । यदिन्दोमंतिस्ते दिवि विहरणारण्यवसुधा
सुधासारस्यन्दी किरणनिकरः शष्पकवलः ॥ ५० ॥ (हरिण को प्रतिपाद्य बनाता हुआ कोई कहता है कि ) हे मृग ! तुम्हारी अकेले की ही, तीनों लोकों में चमत्कार को उत्पन्न करने वाली ( तुम्हारे द्वारा) प्रेरित कोई अमूल्य ( अतुलनीय ) खड्ग की महत्ता स्फुरित होती है जिससे ( भयभीत होकर ) चन्द्रमा का कलेवर तुम्हारे विहार करने के लिए अरण्यभूमि बना हुआ है एवं अमृततत्त्व को प्रवाहित करने वाला ( चन्द्रमा की ) रश्मियों का समुदाय (तुम्हारे भक्षण के लिए ) बालतृणों का ग्रास बना हुआ है ।। ५० ॥