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वक्रोक्तिजीवितम् उपचार-वक्रता का यह दूसरा स्वरूप है-जिसके मूल में होने के कारण रूपकादि अलङ्कार सरस उल्लेख वाले हो जाते हैं । जो जिसका मूल होता है उसे यन्मूलक कहते हैं। रूपक जिसके आदि में होता है उसे रूपकादि कहते हैं। वह ( रूपकादि ) क्या है-अलङ्कृति अर्थात् आभूषण । तात्पर्य यह है कि जिसके मूल में होने के कारण रूपक आदि अलङ्कारों की शोभा । कैसी ( हो जाती है ) सरस उल्लेख से युक्त । सरस का अर्थ है आस्वादपूर्ण अर्थात् चमत्कारसम्पन्न होता है उल्लेख अर्थात् भली भाँति प्रकाश जिसका उसे सरस उल्लेख से युक्त कहा जाता है। समान अधिकरण वाले अलङ्कृति और 'सरसोल्लेखा' में हेतुहेतुमद्भाव सम्बन्ध है, जैसे
अतिगुरवो राजभाषा न भक्ष्या इति ॥४८॥ यन्मला सती रूपकादिरलं कृतिः सरसोल्लेखा। तेन रूपकादेरलंकरणकलापस्य सकलस्यैवोपचारवक्रता जीवितमित्यर्थः ।
बहुत बड़े-बड़े काले उड़द के दाने नहीं खाना चाहिए ।। ४८ ।।
जिसके मूल में रहने के कारण ही रूपकादि अलङ्कार चनत्कार पूर्ण वर्णन से युक्त हो जाते हैं ( उसे भी उपचारवक्ता कहते हैं )। इसलिए उसका आशय यह निकला कि उपचारवक्रता रूपकादि समस्त अलङ्कारसमुदाय का जीवितभूत है।
ननु च पूर्वस्मादुपचारवक्रताप्रकारादेतस्य को भेदः ? पूर्वस्मिन् स्वभावविप्रकर्षात् सामान्येन मनाङ्मात्रमेव साम्यं समाश्रित्य सातिशयत्वं प्रतिपादयितु तद्धर्भमात्राध्यारोपः प्रवर्तते, एतस्मिन् पुनरदूरविप्रकृष्टसादृश्यसमुद्भवप्रत्यासत्तिसनुचितत्वादभेदोपचारनिबन्धनंतत्त्वमेवाध्यारोप्यते । यथा
पहले कहे गये उपचारवक्रता के प्रकार से इस उपचारवक्रता-प्रकार का क्या भेद है।
पहले ( वक्रताप्रकार ) में स्वभाव का अत्यन्त विप्रकर्ष होने से साधारणतया लेशमात्र ही सादृश्य का आधार ग्रहण कर ( उस पदार्थ की ) अत्यधिक उत्कर्षयुक्तता का बोध कराने के लिए केवल ( अन्य पदार्थ के ) धर्म को ही आरोपित किया जाता है, जबकि इस (द्वितीय वक्रता-प्रकार ) में बहुत ही थोड़े व्यवधान वाले पदार्थ के सादृश्य से उत्पन्न अत्यन्त समीपता के योग्य होने से अभेदोपचार के कारणभूत उस पदार्थ को ही आरोपित किया जाता है। ( अर्थात् पहले भेद में केवल पदार्थ के धर्म का आरोप होता है जबकि दूसरे प्रकार में पदार्थ को ही आरोप किया जाता है ) जैसे