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________________ २२० वक्रोक्तिजीवितम् चीज देखने छूने और अनुभव करने योग्य स्निग्धत्व के गुण के समावेश के कारण चिकनी कही जाती है उसी तरह अमूर्त कान्ति को भी उपचार के बल पर चिकनी कहा गया है । अथवा जैसे -- गच्छन्तीनां रमणवसति योषितां तत्र नक्तं रुद्ध लोके नरपतिपथे सूचिभेद्यैस्तमोभिः | सौदामिन्या कनकनिकषस्निग्धया दर्शयोव तोयोत्सर्गस्तनितमुखरो मास्म भूविक्लवास्ताः ॥ ४६ ॥ ( मेघदूत में विरही यक्ष अपनी प्रियतमा के पास सन्देश ले जाने वाले मेघ से मार्ग निर्देश करता हुआ उज्जयिनी के विषय में कहता है कि हे मेघ ! तुम ) वहाँ ( उज्जयिनी में ) रात्रि में घोर ( सूचिभेद्य ) अन्धकार के द्वारा सड़कों पर प्रकाश के रुद्ध हो जाने पर ( अपने ) प्रियतम के निवास स्थान को जाती हुई अबलाओं की स्वर्ग - कसोटी के समान स्निग्ध ( चमकीली ) बिजली के द्वारा भूमि दिखलाना ( अर्थात् मार्ग प्रदर्शन करना ) लेकिन जलवृष्टि एवं गर्जन के द्वारा दुर्मुख मत हो जाना ( अन्यथा वे ) विह्वल हो जायँगी ।। ४६ ।। अत्रामूर्तानामपि तमसामतिबाहुल्या घनत्वान्मूर्त समुचित सूचिभेद्यत्वमुपचरितम् । यथा वा गणं च मत्तमेहं धारालुलिअज्जु गाइ श्र वगाइ । जिरहंकारमिका हति णीला वि जिसानो ॥ ४७ ॥ ( गगनं च मतमेधं धारालुलितार्जुनानि च वनानि । निरहङ्कारमृगाङ्का हरन्ति नीला अपि निशाः ॥ ) यहाँ पर अमूर्त भी अन्धकारों की बहुलता से उनके घने होने के कारण मूर्त के लिए उचित सूचिभेद्य उपचरित हुआ है । अर्थात् सूई के द्वारा भेदन किसी मूर्त पदार्थ का ही सम्भव है । किन्तु जैसे कि मूर्त पदार्थ घना होता है उसी प्रकार अन्धकार के बाहुल्य के कारण अन्धकार भी घना प्रतीत होने लगता है । इसीलिए केवल इसी सघनता मात्र के साम्य के कारण यहाँ सूचीभेद्य शब्द का प्रयोग उपचार से किया गया है । इसलिए यहां उपचार - 'वक्रता होगी । अथवा जैसे ( इसी का अन्य उदाहरण ) - अहंकाररूपी चन्द्रमा से शून्य काली रातें भी मतवाले मेवों वाले आकाश को और (वर्षा की धाराओं से क्षुब्ध अर्जुनों वाले बनों को हटा देती हैं ॥४७॥
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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