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द्वितीयोन्मेषः
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आरोपस्वरूप होता है । जैसे - मूर्तिमत्ता अमूर्तता की अपेक्षा, द्रवरूपता घनत्व की अपेक्षा, चेतनता अचेतनता की अपेक्षा ( विरुद्ध धर्मो का होने के कारण दूरव्यवधान वाली होती है ) ।
कीदृक् तत्सामान्यम् -- लेशेनापि भवत् । मनाङमात्रेणापि सत् । किमर्थम् कांचिदपूर्वामुद्रिक्तवृत्तित्तां वक्तुं सातिशयपरिस्पन्दतामभिधातुम् । यथा
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स्निग्धश्यामलकान्तिलिप्त वियतः ॥ ४५ ॥ -
( इस प्रकार 'दूरान्तर' पद की सम्यक् उपपति का विवेचन कर अब पुनः कारिका की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं कि जो सामान्य उपचरित होता है) वह सामान्य कैसा होता है — लेश से भी विद्यमान अर्थात् थोड़ा-सा भी विद्यमान ( सामान्य उपचरित होता है ) । किस लिये ( यह सामान्य उपचरित किया जाता है ) - किसी अपूर्व उद्रिक्तवृत्तिता अर्थात् अतिशय पूर्ण व्यापार अथवा धर्म के भाव का प्रतिपादन करने के लिए । जैसे
( उदाहरण सङ्ख्या २।२७ पर पूर्वोद हृत पद्य का निम्न अंश कि ) ( अपनी ) स्निग्ध ।। ४५ ॥
अत्र यथा बुद्धिपूर्वकारिणः केचिच्चेतनवर्णच्छायातिशयोत्पादनेच्छया केनचिद्विद्यमानलेपनशक्तिना मूर्तेन नीलादिना रञ्जनद्रव्यविशेषेण किच्चिदेव लेपनीयं मूर्तिमद्वस्तु वस्त्रप्रायं लिम्पन्ति तद्वदेव तत्कारित्वसामान्य मनामात्रेणापि विद्यमानं कामप्युद्रिक्तवृत्तितामभिधातुमुपचारात् स्निग्धश्यामलया कान्त्या लिप्तं वियद् द्यौरित्युपनिबद्धम् । 'स्निग्ध' शब्दोऽप्युपचारव एव । यथा मूर्तं वस्तु दर्शनस्पर्शनसंवेद्यस्नेहनगुणयोगात् स्निग्धमित्युच्यते, तथैव कान्तिरमूर्ता - प्युपचारात् स्निग्वेत्युक्ता । यथा वा
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यहाँ पर जिस तरह बुद्धिपूर्वक कार्य करने वाले कुछ लोग वर्णों की चेतन कान्ति के अतिशय को उत्पन्न करने की इच्छा से किसी लेपन शक्ति से युक्त नील आदि वास्तविक रंगने के माध्यम स्वरूप वस्तु विशेष के द्वारा किसी रंगने के योग्य मूर्तिमती या ठोस वस्तु जैसे कि वस्त्र को रँगते हैं उसी तरह उसे कर सकने का साधर्म्य केवल थोड़ा-सा भी स्थित रह कर किसी अतिशादी व्यापार के भाव को लक्षणा के द्वारा प्रस्तुत करने के लिए 'चिकनी साँवली कान्ति से रंगा हुआ आकाश अर्थात् स्वर्ग' इस ढंग से प्रस्तुत किया गया है । 'स्निग्ध' शब्द भी लक्षणा की वक्रता से ही संवलित है । जैसे कि ठोस