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( ३३ ) धिकरण्य प्रस्तुत कर देते हैं वहाँ संख्यावकता होती है। जैसे-'प्रियो मन्युातस्तव निरनुरोधे न तु वयम्' में ताटस्थ्य का प्रतिपादन करने के लिये एकवचन 'अहम्' का प्रयोग न करके बहुवचन 'वयम्' का प्रयोग किया गया है। अथवा 'फुल्लेन्दीवरकाननानि नयने में नयन में प्रयुक्त द्विवचन का काननानि में प्रयुक्त बहुवचन के साथ सामानाधिकरण्य सहृदयहृदयाह्लादकारी है ।
(ध) पुरुषवक्रता-जहाँ कविजन काव्यसौन्दर्य को प्रस्तुत करने की इच्छा से उत्तम अथवा मध्यमपुरुष के स्थान पर कभी प्रथमपुरुष का प्रयोग कर देते हैं, अथवा अस्मद् या युष्मद आदि का प्रयोग न कर केवल प्रातिपदिकमात्र का प्रयोग करते हैं वहाँ पुरुषवकता होती है। जैसे 'जानातु देवी स्वयम्' में वक्ता ने अपनी उदासीनता का प्रतिपादन करने के लिए 'युष्मद्' मध्यमपुरुष का प्रयोग न कर प्रादिपदिकमात्र का प्रयोग किया है जो सहृदयावर्जक होने के कारण पुरुषवकता को प्रस्तुत करता है।
(0) उपग्रहवक्रता-धातुओं के लक्षण के अनुसार निषित.पद (श्रात्मनेपद अथवा परस्मैपद ) के आश्रय वाले प्रयोग की उपग्रह करते हैं
"धातूनां लक्षणानुसारेण नियतपदाश्रयः प्रयोगः पूर्वाचार्याणाम् 'उपप्रह'शब्दाभिधेयतया प्रसिद्धः ।"-(पृ. २६३)
अतः जहाँ कविजन वर्ण्यमान पदार्थ के औचित्य के अनुरूप सौन्दर्य का सृष्टि के लिये आत्मनेपद अथवा परस्मैपद में से किसी एक पद का ही प्रयोग करते हैं वहाँ उपप्रहबकता होती है
(छ) प्रत्ययविहित प्रत्ययवक्रता-जहाँ पर तिकादि प्रत्ययों से बनाया गया अन्य प्रत्यय किसी अपूर्व रमणीयता को प्रस्तुत करता है वह अभी तक बतायो गयी वक्रतामों से भिन एक प्रत्ययविहित प्रत्ययककता को प्रस्तुत करता है जैसे
"बन्दे वावपि तावहं कविवरौ वन्देतरां तं पुनः" में 'बन्देतराम्' पद में तिप्रत्यय से विहित प्रत्ययवकता को प्रस्तुत करता है।
उपसर्गनिपातजनित पदवक्रता अभी तक कुन्तक ने यथासम्भव नाम एवं श्राख्यात पदों में से प्रत्येक के प्रकृति एवं प्रत्यय से सम्भव होने वाली वक्रतामों का विवेचन प्रस्तुत किया। किन्तु इनके अतिरिक्त उपसर्गों और निपातों के श्रव्युत्पन्न होने के कारण उनका अवयवों के अभाव में कोई विभाग सम्भव नहीं था। अतः उन्हें न वे पदपूर्वार्द्धवक्रता के अन्तर्गत ही विवेचित कर सकते थे और न पदपरार्धवकता के अन्तर्गत