________________
( ३२ )
लोकोत्तर उत्कर्ष की प्रतोति कराने के लिये कर्म आदि को सर्वनामादि के द्वारा छिपा कर क्रिया का प्रतिपादन किया जाता है, वह क्रिया के वैचित्र्यवकता को प्रस्तुत करने के कारण क्रियावैचित्र्यवक्रता को प्रस्तुत करता है । जैसे
'नेत्रान्तरे मधुरमर्पयतीव किश्चित्' में किसी लोकोत्तर कर्म को सम्पादित करती हुई क्रिया को, उपनिबद्ध किया गया है, कर्म का 'किश्चित्' द्वारा संवरण किया गया है ।
इस प्रकार द्वितीय उन्मेष की २५ वीं कारिका तक कुन्तक पदपूर्वार्द्धवकता का विवेचन कर उसकी समाप्ति इन शब्दों में करते हैं:
--
इत्ययं पदपूर्वार्द्धवक्रभावो व्यवस्थितः । दिङ्मात्रमेवमेतस्य शिष्टं लक्ष्ये निरूप्यते ॥
पदपरार्ध अथवा प्रत्ययवक्रता
( क ) कालवैचित्र्यवक्रता - प्रत्ययवक्रता का विवेचन प्रारम्भ करते हुए कुन्तक सर्वप्रथम कालवैचित्र्यवक्रता को प्रस्तुत करते हैं । जहाँ पर वर्ण्यमान पदार्थ के औचित्य का अत्यन्त अन्तरङ्ग होने के कारण अर्थात् उसके उत्कर्ष को उत्पन्न करने वाला वैयाकरणों में प्रसिद्ध लट् आदि प्रत्ययों द्वारा वाच्य वर्तमान आदि काल रमणीयता को प्राप्त करता है, वहाँ कालवैचित्र्यवक्रता होती है ।
( ख ) कारकवक्रता - जहाँ पर भङ्गीभणिति की किसी अपूर्व रमणीयता को परिपुष्ट करने के लिए कवि कारकों के परिवर्तन को प्रस्तुत करते हैं, वहाँ कारकवकता होती है । कहने का आशय यह कि जहाँ कविजन प्रधान कारक को गौण बना कर और गौण कारक को उस पर प्रधानता का आरोप करके प्रधान रूप से उपनिबद्ध करते हैं वहीँ कारकवकता होती है। इस प्रकार से करणभूत गौण अचेतन आदि पदार्थ मुख्य चेतन में सम्भव होने वाली कर्तृता के आरोप से कर्तारूप में उपनिबद्ध होकर चमत्कार जनक हो जाते हैं। जैसे—
'स्तनद्वन्द्वं मन्दं स्नपयति बलाद् बाष्पनिवहः' में बाष्प निवह' अचेतन, गौण, एवं करणभूत है किन्तु कवि ने यहाँ उस पर चेतन में सम्भव होनेवाली कर्तृता का आरोप कर उसे कर्तारूप में उपनिबद्ध कर अपूर्व कारकवैचित्र्य को प्रस्तुत किया है ।
(ग) सख्या वक्रता - जहाँ कविजन काव्यवैचित्र्य का प्रतिपादन करने की इच्छा से वचन विपरिणाम को प्रस्तुत करते हैं वहाँ सङ्ख्यावक्रता होती है । आशय यह कि जहाँ एकवचन या द्विवचन का प्रयोग करने के बजाय बहुवचन का प्रयोग कर देते हैं अथवा दो भिन्न वचनों का सामाना