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द्वितीयोन्मेषः
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एष एव च शब्दशक्तिमूलानुरणनरूपव्यङ्गयस्य पदध्वनेविषयः, बहुषु चैवंविषेषु सत्सु वाक्यध्वनेर्वा । यथा -
कुसुमसमययुगमुपसंहरनुत्फुल्लमल्लिकाधवलाट्टहासो व्यजृम्भत ग्रीष्माभिधानो महाकालः ॥३६॥
यही ( पर्यायवक्रता का तीसर। भेद ध्वनिवादियों के अनुसार उक्त उदाहरण की भांति एक पर्याय पद के प्रयुक्त होने पर ) शब्दशक्तिमूल अनुरणन रूप व्यंग्य के पदध्वनि का विषय होता है। अथवा इसी प्रकार के अनेक (पर्यायों ) के ( प्रयुक्त ) होने पर वाक्य ध्वनि का विषय होता है। जैसे ( वाक्यध्वनि का उदाहरण )
वसन्त युग का उपसंहार करते हुए खिली हुई बेला के उज्ज्वल अट्टहास वाला ग्रीष्म नामक दीर्घकाल आ गया। ( व्यंन्यार्थ-कुसुमसमय तुल्य युग को समाप्त करता हुआ खिले हुए बेला के फूल की तरह सफेद अट्टहास वाले यमराज ने जमाई ली ) ॥ ३६ ।। यथा
वृत्तेऽस्मिन् महाप्रलये धरणीधारणायाधना त्वं शेषः इति ॥ ३७॥
और जैसे (सिंहनाद के कथनानुसार हर्षचरित के प्रक्रान्त पक्ष में) उत्सवों के इस सर्वतः विनाश के संघटित हो जाने पर साम्राज्य के सम्हालने के लिए अब तुम्ही अवशिष्ट हो । ( व्यंग्यार्थ पक्ष में) इस महाप्रलय के हो जाने पर ( अर्थात् दशों दिक्पालों और दिग्गजों के समाप्त हो जाने पर ) इस वसुन्धरा के धारण के लिए शेषनाग ही रह जाते हैं। ( यह दूसरा अर्थ ध्वनिवादियों के अनुसार उपमाध्वनि को प्रस्तुत करता है ) ॥ ३७ ॥
अत्र युगादयः शब्दा प्रस्तुताभिधानपरत्वेन प्रयुज्यमानाः सन्तोऽप्यप्रस्तुतवस्तुप्रतीतिकारितया कामपि काव्यच्छायां समुन्मीलयन्तः प्रतीयमानालङ्कारव्यपदेशभाजनं भवन्ति ॥ ___ यहाँ पर युग आदि शब्द को प्रकाशित करने में लगे होने के कारण प्रयोग में लाए जाते हुए भी आक्रान्त वस्तु का बोध कराने गले के रूप में एक अनिर्वचनीय काव्य शोभा को उन्मीलित करते हुए प्रतीयमान अलङ्कार की संज्ञा के पात्र बनते हैं। विशेषणेन यथा
सुस्निग्धमुग्धधवलोदृशं विदग्ध
मालोक्य यन्मधुरमद्य. विलासदिग्धम् । १४५० जी०