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द्वितीयोन्मेष:
१८१ की लतरों से बने हुए सुन्दर सुपाड़ी के बृक्षों के नीवे के विस्तरों पर (बैठकर ) सेवन करें॥ १० ॥
टिप्पणी-यहाँ 'दात्यूह' का अर्थ हम कोयल भी कर सकते हैं। जैसा कि बालरामायण के टीकाकार ने किया है। यहाँ सैनिकों की विश्राम की बात कवि ने प्रस्तुत की है । कौवे की बोली इतनी कर्णकटु होती है कि उसे सुन कर लोगों को क्रोध भले आ जाय, आनन्द कदापि नहीं मिल सकता। जबकि चातक की और कोयल की मधुर वाणी सुनने में मनुष्यों को अत्यधिक आनन्द लाभ होता है। परन्तु खेद है कि हमारे सहृदय शिरोमणि आचार्य विश्वेश्वर जी को कौवे को कांव काँव ही आनन्द प्रदान करती है, तभी तो उन्होंने 'अमरकोष' का प्रमाण उद्धृत करते हुए बालरामायण के टीकाकार द्वारा दिये गये 'कोकिल' अर्थ का बड़े जोरों के साथ खण्डन किया है । शायद वे यह भूल गये थे कि अमरकोष के अतिरिक्त भी कोई कोश है। विश्वकोश का कथन है
"दात्यूहः कलकण्ठे स्याद् दात्यूहश्चातकेऽपि च ।" यहाँ पर 'पाय पायं', 'कदलदलं', 'केलीकलित' एवं 'कुहकुहाराव' में क्रमश: प् य, द ल, एवं क् ह की बिना किसी वर्ग के व्यवधान के आवृति हुई है। पर जैसा कि आचार्य विश्वेश्वर जी ने लिखा है कि ........ दात्यूहव्यूह'.... कान्ता वनान्ता आदि में दो दो अक्षरों का अव्यवधान से प्रयोग मानकर इसकी इस प्रकार को वर्णविन्यासवक्रता का उदाहरण बतलाया है, यह कथन कहाँ तक सही है, पाठक स्वयं विचार कर सकते हैं जब कि स्पष्ट ही यूह-यूह के बीच में व का व्यवधान है जो कि स्वर नहीं है न्ता और न्ता के बीच में तो 'वना' दो अक्षरों का ही व्यवधान है। हाँ, यहां यह व्यवधानयुक्त वर्ग विन्यासवक्रता स्वीकार की जा सकती है जैसा कि ग्रन्थकार ने आगे स्वयं अपि शब्द के ग्रहण द्वारा व्यक्त किया है । यथा वा --
अयि पिबत चकोराः कृत्स्नमुन्नाम्य कण्ठान् क्रमुकबलनवञ्चच्चञ्चवश्चन्द्रिकाम्भः । विरहविधुरितानां जीवितत्राणहेतो
र्भवति हरिणलक्ष्मा येन तेजोदरिद्रः॥११॥ अथवा जैसे ( इसी का दूसरा उदाहरण)
सुपाड़ियों को कुतरने के कारण हिलती हुई चोंचों वाले चकोरों ! विरह से विधुर लोगों के जीवन की रक्षाहेतु अपनी गर्दनों को ऊपर उठाकर सारा