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द्वितीयोन्मेष:
परुषरस प्रस्तावे तथाविषसंयोगोदाहरणं यथा - उत्ताम्यत्तालवश्च प्रतपति तरणावांशवीं तापतन्द्रीमद्रिद्रोगीकुटीरे कुहरिणि हरिणारा तयो यापयन्ति ॥ ८ ॥ Tरुष ( कठोर भयानक ) रस का प्रकरण होने पर उसी प्रकार के ( परुष वर्णों के ) संयोग का उदाहरण ! जैसे---
सूर्य के खूब तपने पर ( अर्थात् दोपहर के समय ) सूखती हुई तालुओं वाले मृगों के शत्रु सिंह (सूर्य की ) किरणों के सन्ताप से उत्पन्न नींद को कुहरों वाले पर्वत की घाटियों रूपी कुटीरों में बिताते हैं ॥ ८ ॥
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टिप्पणी- यहाँ पर कवि को भयानक रस की सृष्टि करना अभिप्रेत था जो कि एक परुष रस है । इसीलिए कवि ने भयानक सिंह के भयावह निवास का वर्णन प्रस्तुत करते समय उसी के योग्य त, प, व, र, है, एवं ण आदि परुष वर्णों को पुनः पुनः आवृत किया है, जिसके पढ़ने से ही भय की प्रतीति होने लगती है । अतः ऐसे परुष रसों के प्रस्ताव में कवि अथवा सहृदय परुष वर्णों की ही पुनः पुनः आवृत्ति रूप वक्रता को पसन्द करते हैं ।
एतामेव वैचित्र्यान्तरेण व्याचष्टे -
काचिदव्यवधानेऽपि
मनोहारिनिबन्धना ।
सा स्वराणामसारूप्यात् परां पुष्णाति वक्रताम् ॥३॥
इसी ( वर्णविन्यासवक्रता ) को दूसरे ढङ्ग की विचित्रता द्वारा प्रस्तुत करते हैं
( यह वर्गविन्यासवक्रता ) कहीं-कहीं ( वाक्य के किसी भी अंश में ) ( व्यंजनों के ) व्यवधान के अभाव में भी ( एक ही सिलसिले से पुन: पुनः व्यञ्जनों की आवृति से युक्त होने पर ) चित्ताकर्षक संघटन से युक्त होती है । ( तथा कहीं-कहीं पर ) वह ( वर्णविन्यासवक्रता ) स्वरों के असमान होने से किसी अन्य अपूर्व वैचित्र्य को पुष्ट करती है ॥ ३ ॥ क्वचिदनियतप्रायवाक्यैकदेशे कस्मिश्चिदव्यवधानेऽपि धनाभावेऽप्येकस्य द्वयोः समुदितयोश्च बहूनां वा पुनः पुनबंध्यमानानामेषां मनोहारिनिबन्धना हृदयावर्जक विन्यासा भवति । काचिदेवं सम्पद्यत इत्यर्थः । यमकव्यवहारोऽत्र न प्रवर्तते यस्य नियतस्थानतया व्यवस्थानात् । स्वरैरव्यवधानमत्र न विवक्षितम्, तस्यानुपपत्तेः ।
व्यव
कहीं का अर्थ है, वाक्य ( श्लोक ) के प्रायः अनिश्चित किसी एक भाग में व्यवधान अर्थात् (व्यों के ) अन्तर के अभाव में भी, एक ( वर्ण ),