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(२६ ) इसी से विशेषण का स्वरूप निर्धारण करते हुए वे कहते हैं, स्वमहिम्ना विधीयन्ते येन लोकोत्तरश्रिय ।
रसस्वभावालङ्कारास्तद विधेयं विशेषणम् ॥ (पृ. २२७ ) (6) संवृतिवक्रता-जहाँ पर पदार्थ का स्वरूप किसी वैचित्र्य का प्रतिपादन करने के लिए उसके अपूर्व वाचकभूत सर्वमाम आदि के द्वारा छिपा दिया जाता है, वहाँ संवृतिवकता होती है। यह संवरण अधोलिखित अवस्थाओं में प्रयुक्त होकर संवृतिवक्रता की सृष्टि करता है
(१) जहाँ पर साक्षात् शब्दों द्वारा कही जा सकने योग्य भी उत्कर्षयुक वस्तु का सामान्यवाची सर्वनाम के द्वारा यह सोचकर संवरण कर दिया जाता है कि कहीं साक्षात् प्रतिपादन के कारण इस वस्तु का उत्कर्ष इयत्ता से परिच्छिन्न होकर परिमितप्राय न हो जाय वहाँ संवृतिवक्रता होती है।
(२) जहाँ पर अपने स्वभावोत्कर्ष की चरम सीमा को पहुँची हुई वस्तु को वाणी का अविषय सिद्ध करने के लिए उसे सर्वनामादि के द्वारा आच्छादित करके प्रस्तुत किया जाता है-वहा दूसरे प्रकार की संवृतिवकता होती है।
(३) जहाँ किसी अत्यन्त सुकुमार वस्तु को बिना उसके कार्यातिशय को कहे ही केवल संवरणमात्र से सौन्दर्य की पराकाष्ठा को पहुँचा दिया जाता है वहाँ तीसरे प्रकार की संवृतिवकता होती है ।
(४) जहाँ किसी स्वानुभवसंवेश वस्तु को वाणी का अविषय सिद्ध करने के लिये ही सर्वनामादि के द्वारा संवरण कर दिया जाता है, वहाँ चौथे प्रकार की संवृतिवकता होती है।
(५) पाँचवें प्रकार की संवृतिवकता वहाँ होती है जहाँ परानुभवैकगम्य वस्तु को वक्ता की वाणी का अविषय सिद्ध करने के लिए ही सर्वनामादि द्वारा संवरण कर दिया जाता है।
(६) छठी संवृतिवकता वहाँ होती है जहाँ पर स्वभावतः अथवा कवि की विवक्षा से किसी दोष से युक्त वस्तु का सर्वनामादि के द्वारा संवरण उसकी महापातक के समान अकथनीयता का प्रतिपादित करने के लिए किया जाता है ।
(च) पदमध्यान्तर्भूत प्रत्ययवक्रता-जहाँ पर पद के मध्य में आने वाले कृदादि प्रत्यय अपने उत्कर्ष के द्वारा वर्ण्यमान पदार्य के औचित्य की रमणीयता को अभिव्यक्त करते हैं वहाँ पदमध्यान्तर्भूत प्रत्ययवकता होती है।
_ अथवा जहाँ पर मुमादि आगमों के विलास से रमणीय कोई प्रत्यय बन्धसौन्दर्य को परिपुष्ट करता है वहाँ दूसरी प्रत्ययवकता होती है ।
(छ) वृत्तिवैचित्र्यवक्रता-जहाँ पर पेयाकरणों के यहाँ प्रसिद्ध अव्ययी