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द्वितीयोन्मेषः सर्वत्रैव सामन्यलक्षणे विहिते विशेषलक्षणं विधातव्यमिति काव्यस्य "शब्दार्थों सहितो" इत्यादि (११७) सामान्यलक्षणं विध । तदवयवभूतयोः शब्दार्थयोः साहित्यस्य प्रथमोन्मेष एव विशेषलक्षणं विहितम् । इदानी प्रथमोद्दिष्टस्य वर्णविन्यासवक्रत्वस्य विशेषलक्षणमुपक्रमते
सभी स्थानों पर ( शास्त्रों में किसी भी वस्तु का) सामान्य लक्षण करके विशेष लक्षण करना चाहिए (ऐसा नियम है) इसलिए (प्रयम उन्मेष की ७ वीं कारिका में ) काव्य का 'शब्दार्थों सहिती इत्यादि' ऐसा सामान्य लक्षण करने के उपरान्त (विशेष लक्षण करते समय ) उस ( काव्य लक्षण ) के अवयव रूप शब्द और अर्थ के साहित्य (सहभाव) का विशेष लक्षण प्रथम उन्मेष ( कारिका सं० १६ एवं १७) में ही .किया जा चुका है। अब ( इस द्वितीय उन्मेष में, प्रथम उन्मेष की १६ वीं कारिका में) पहले उद्दिष्ट किये गये ( अर्थात् जिसका केवल नाममात्र से सङ्कीर्तन किया गया था उसी) 'वर्ण विन्यास के वक्रभाव' के विशेष लक्षण को प्रारम्भ करने जा रहे हैं
एको द्वौ बहवो वर्णा बध्यमानाः पनः पनः। स्वल्पान्तरास्त्रिया सोक्ता वर्णविन्यासवक्रता ॥१॥ (जहाँ थोड़े थोड़े व्यवधान वाले, एक, दो अथवा बहुत से व्यञ्जन (वर्ण ) अनेकशः संयोजित किए जाते हैं) वह तीन प्रकार की 'वर्णविन्यास. वक्रता' मानी गई है ॥ १ ॥ - वर्णशब्दोऽत्र व्यञ्जनपर्यायः, तथा प्रसिद्धत्वात् । तेन सा वर्ष'विन्यासवक्रता व्यखनविन्यासनविच्छित्तिः त्रिधा त्रिभिः प्रकाररुका वर्णिता। के पुनस्ते त्रयः प्रकारा इत्युच्यते-एकः केवल एत्र, कदाचिद् द्वौ बहवो वा वर्णाः पुनः पुनर्बध्यमाना योज्यमानाः । कीदृशा -स्वल्पान्तराः। स्वल्पं स्तोकमन्तरं व्यवधानं येषां ते तथोक्ताः । त एव त्रयः प्रकारा इत्युच्यन्ते । अत्र वीप्सया पुनः पुनरित्ययोगव्यवच्छेदपरत्वेन नियमः, नान्ययोगव्यवच्छेदपरत्वेन । तस्मात्पुनः पुनर्वध्यमाना एव, न तु पुनः पुनरेवं बध्यमाना इति ।
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