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प्रथमोन्मेषः
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करतल कलिताक्षमालयोः समुदितसाध्वससन्नहरतयोः । कृतरुचिरजटनिवेश योरपर इवेश्वरयोः वेश्वरयोः समागमः ।। ११५ ।।
करतलों पर सुशोभित होती हुई अक्षमाला वाले उत्पन्न भय ( या सात्त्विक भाव ) के कारण जड़ हो गए हुए हाथों वाले तथा निर्मित की गई सुन्दर जटाओं की रचना वाले ( उन दोनों का ) मानो पार्वती तथा शङ्कर का दूसरा समागम सा हुआ ।। ११५ ।।
यथा वा
उपगिरि पुरुहूतस्यैष सेनानिवेशस्तटमपरमितोऽद्रेस्त्वद्वलान्यावसन्तु । ध्रुवमिह करिणस्ते दुर्धराः सन्निकर्षे सुरगजमदलेखा सौरभं न क्षमन्ते ॥ ११६ ॥
अथवा जैसे ( इसी का दूसरा उदाहरण ) -
पहाड़ के पास ( इस ओर तो ) यह इन्द्र का सैन्य सिविर है ( अतः ) पहाड़ के दूसरे तट पर तुम्हारी सेनायें निवास करें ( क्योंकि ) निश्चय ही तुम्हारे कठिनाई से वश में किए जा सकने वाले हाथी समीप में स्थित देवताओं के हाथियों के दान ( जल ) की रेखाओं की गन्ध को नहीं सह सकते ।। ११६ ।
यथा च
हे नागराज बहुधास्य नितम्बभागं भोगेन गाढमभिवेष्टय मन्दराद्रेः । सोढाविषह्यवृषवाहन योगलीलापर्यबन्धनविधेस्तव कोऽतिभारः ।। १२६ ।।
और जैसे ( इसका तीसरा उदाहरण ) --
हे नागेन्द्र, इस मन्दर पर्वत के मध्य भाग को अपनी कुण्डली से कई बार कस कर लपेट लो। क्योंकि शिवजी की योगलीला के असह्य पर्यङ्कबन्ध की विधि को सहन कर लेने वाले तुम्हारे लिए यह कौन बड़ा बोझ होगा ।
यहाँ पर पहले के ( करतल - आदि ।। ११५ ।। एवं उपगिरि आदि ।। ११६ ।। ) दोनों उदाहरणों में अलङ्कार के गुणों से ही वह ( औचित्य नामक ) गुण परिपुष्ट हो रहा है । ( अर्थात् करतल इत्यादि में जो उत्प्रेक्षा अलङ्कार कवि ने कल्पित किया है, उस अलङ्कार को पुष्ट करने के लिए कवि ने जिन 'ईश्वरयो:' के तीन 'करतलकलिताक्षमालयोः' आदि विशेषण दिये हैं जो कि दोनों का साम्य बताते हैं वे अत्यन्त ही औचित्ययुक्त होने के