________________
१५२
वक्रोक्तिजीवितम्
प्रसादस्य यथा
'तद्वक्वेन्दुविलोकनेन' इत्यादि ।। ११२ ॥ प्रसाद (गुण) का (उदाहरण) जैसे
( उदाहरण संख्या २३ पर पूर्व उदाहृत ) 'तद्वक्वेन्दुविलोकनेन' इत्यादि (पद्य ) ॥ ११२ ॥
टिप्पणी-सुकुमार मार्ग के प्रसाद गुण का लक्षण हैं-'रस एवं वक्रोक्तिविषयक अभिप्राय को अनायास व्यञ्जित करना तथा शीत्र अर्थ की प्रतीति करा देना' तथा विचित्र मार्ग के प्रसाद की विशिष्टता है-'कुछ-कुछ ओज का स्पर्श करता हुआ एवं समासहीन पदों के विन्यास से युक्त तथा एक ही वाक्य में अनेक अवान्तर वाक्यों का पदों की भांति ( व्यङ्गयार्थ) के व्यञ्चक रूप में प्रयोग से युक्त' । यहाँ उदाहृत निम्न पद्य
तद्वक्वेन्दुविलोकनेन दिवसो नीतः प्रदोषस्तथा तग्दोष्ठयव निशापि मन्मथकृतोत्साहैस्तदङ्गार्पणैः । तां सम्प्रत्यपि मार्गदत्तनयनां द्रष्टुं प्रवृत्तस्य मे
बद्गोत्कण्ठमिदं मनः किमथवा प्रेमासमाप्तोत्सवम् ।। --में शृङ्गार रस एवं दीपक रूप अलंकार अनायास ही व्यञ्जित हो जाता है। अर्थ की प्रतीति पढ़ते ही हो जाती है। तथा अधिकतर समास जित । पदों का प्रयोग है । हाँ, तद्वक्वेन्दुविलोकनेन, मन्मथकृतोत्साहैः एवं मार्गदत्तनयनाम् आदि पदों में कुछ समासों का प्रयोग होने से कुछ-कुछ ओज का स्पर्श भी प्राप्य है। तथा 'दिवसो नीतः', 'निशापि ( नीता )' 'प्रदीपः (नीतः )', 'मनः ( अस्ति )' इत्यादि अनेक अवान्तर वाक्यों का भी इसके व्यक्षक रूप में प्रयोग ‘हा है। अतः यह मध्यम मार्ग के प्रसाद गुण से युक्त पद्य है। लावण्यस्य यथा
संक्रान्ताङ्गुलिपर्वसूचित करस्वापा कपोलस्थली नेत्रे निर्भरमुक्तबाष्पकलुषे निश्वासतान्तोऽधरः । बद्धोद्भेदविसंष्ठु मालकलता निर्वेदशून्यं मनः कष्टं दुर्नयवेदिभिः कुपचिववेत्सा दृढ़ खेद्यते ।। ११३ ॥ .
( इस प्रकार प्रसाद गुण को उदाहृत करने के अनन्तर मध्यम मार्ग के) लावण्य (गुण) का ( उदाहरण ) जैसे
(जिसको) गण्डस्थली, (कपोलों पर) संक्रमित अगुलियों की ग्रन्थियों से ( कपोलों के ) हाथ पर ( रख कर किए गये ) शयन को सूचित करने