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प्रथमोन्मेषः
माधुर्येत्यादि । यत्र च माधुर्यादिगुणप्रामो माधुर्यप्रभृतिगुणसमूहो मध्यमामुभयच्छायाच्छुरितां वृत्तिं स्वस्पन्दगतिमाश्रित्य कामप्यपूर्वा बन्धच्छायातिरिक्ततां सन्निवेशकान्त्याधिकतां पुष्णाति पुष्यतीत्यर्थः ।
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( और कैसा होता है मध्यम मार्ग इसे प्रतिपादित करते हैं ) माधुर्यत्यादि ( ५० वीं कारिका के द्वारा ) । और जहाँ पर माधुर्यादि गुणों का समूह अर्थात् माधुर्य ( प्रसाद, लावण्य एवं आभिजात्य ) आदि ( पूर्वोक्त ) गुणों का समुदाय मध्यम अर्थात् ( सुकुमार एवं विचित्र ) दोनों ( मार्गो) की शोभा से संयुक्त वृत्ति अर्थात् स्वाभाविक गति का आश्रयण कर किसी अपूर्व बन्धसौन्दर्य की अतिरिक्तता अर्थात् सङ्घटना सौन्दर्य के आधिक्य का पोषण करता है, ( उसे मध्यम मार्ग कहते हैं ) ।
तत्र गुणानामुदाहरणानि । तत्र माधुर्यस्य यथा
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बेलानिलैमृदुभिराकुलितालकान्ता
गायन्ति यस्य चरितान्यपरान्तकान्ताः । लीलानताः समवलम्ब्य लतास्तरुणां हिन्तालमालिषु तटेषु महार्णवस्य ।। १११ ॥
वहाँ ( उस मध्यम मार्ग में माधुर्यादि ) गुणों के उदाहरण ( अब प्रस्तुत किये जाते हैं ) । उनमें ( सर्वप्रथम ) माधुर्य ( गुण का उदाहरण ) जैसे
हिन्ताल ( वृक्षों ) की कतारों से युक्त महासागर के तटों पर, वृक्षों की लताओं का सहारा लेकर विलास के साथ झुकी हुई, तथा समुद्र तट की मृदुल हवाओं ( झोकों ) से अस्त-व्यस्त ( बिखरे हुए ) केशपाश वाली दूसरे तट पर स्थित कामिनियाँ जिसके चरित्र को गाया करती हैं ॥ १११ ॥
टिप्पणी- आचार्य कुन्तक ने सुकुमार मार्ग के माधुर्य का लक्षण प्रचुर समास से रहित मनोहर पदों का विन्यास, तथा विचित्र मार्ग के माधुर्य का लक्षण शैथिल्य - रहित, बन्ध-सौन्दर्य का उपकारक एवं वैचित्र्य को उत्पन्न करने वाला किया है । इस उदाहरण में दोनों का सम्मिश्रण है । अर्थात् पदों में न तो प्रचुर समास ही है तथा न किसी प्रकार का शैथिल्य है 'न्त' एवं 'ल' और 'क' आदि मनोहर वर्णों की अनेकों बार आवृत्ति होने से एक अपूर्व ही मनोहरता एवं वैचित्र्य की सृष्टि हुई है जिससे बन्ध का सौन्दर्य बढ़ गया है । अतः यह मध्यम मार्ग के माधुर्य गुण रूप में उद्धृत हुआ है । इसके अनन्तर अब प्रसाद गुण को प्रस्तुत करते हैं