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________________ १४० वक्रोक्तिजीवितम् दिन प्रतिदिन बढ़ने की बात सुनकर उस नायिका से मिलने की उत्कण्ठा जागृत होती है । इस प्रकार यहाँ प्रधान रूप से कवि ने इसी प्रतीयमान अर्य को उपनिबद्ध किया है । ) विचित्रमेव रूपान्तरेण प्रतिपादयति-स्वभाव इत्यादि । यत्र यस्मिन् भावानां स्वभावः स्वपरिस्पन्दः सरसाकूतो रसनिर्भराभिप्रायः पदार्थानां निबध्यते निवेश्यते । कीदृशः–केनापि कमनीयेन वैचित्र्येणोपबृंहितः, लोकोत्तरेण हृदयहारिणा वैदग्ध्येनोत्तेजितः । 'भाव' शब्देनात्र सर्वपदार्थोऽभिधीयते, न रत्यादिरेव । उदाहरणम् विचित्र ( माग ) को ही दूसरे ढंग से प्रतिपादित करते हैं-स्वभावइत्यादि ( ४१वीं कारिका के द्वारा)। जहाँ अर्थात् जिस ( मार्ग ) में भाव अर्थात् पदार्थों का, सरसाकृत अर्थात् रस के अतिशय से युक्त अभिप्राय वाला स्वभाव अर्थात् अपनी ही सत्ता का निबन्धन अर्थात् वर्णन किया जाता है। कैसा-(स्वभाव )--किसी रमणीय वैचित्र्य से वृद्धि को प्राप्त कराया गया अर्थात् अलौकिक एवं मनोहर विदग्धता से उत्सर्ग को प्राप्त । 'भाव 'शब्द के द्वारा यहाँ सभी पदार्थों का ग्रहण होता है केवल रति आदि भावों ही का नहीं । ( इसका ) उदाहरण ( जैसे ) क्रोडासु बालकुसुमायुधसङ्गताया यत्तत् स्मितं न खलु तत् स्मितमात्रमेव । आलोक्यते स्मितपटान्तरितं मृगाच्या स्तस्याः परिस्फुरदिवापरमेव किञ्चित् ॥ १०१ ॥ क्रीडाओं में ( या काम-केलि में ) बाल कामदेव से संयुक्त ( अर्थात् शैशवावस्था के बाद तुरत ही नये-नये काम के विकारों से युक्त ) उस मृगनयनी की जो वह मुस्कुराहट है वह केवल मुस्कुहाहट ही नहीं है, अपितु मुस्कुराहट रूपी वस्त्र से ढंकी हुई कोई अन्य ही वस्तु स्फुटित होती हुई सी दिखाई देती है ॥ १०१ ।।। अत्र न ललु तत् स्मितमात्रमेवेति प्रथमार्धेऽभिलाषसुभगं सरसा. भिप्रायत्वमुक्तम् । अपरार्धे तु-हसितांशुकतिरोहितमन्यदेव किमपि परिस्फुरदावलोक्यत इति कमनीयवैचित्र्यविच्छित्तिः। __यहाँ पर "वह केवल मुस्कुराहट ही नहीं है" इस पूर्वार्द्ध में ( उस तरुणी का सम्भोग की) इच्छा से रमणीय सरस अभिप्राय से युक्त होना प्रतिपादित किया गया है। तथा उत्तरार्द्ध में "मुस्कुराहटरूपी वस्त्र से ढकी
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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