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वक्रोक्तिजीवितम् दिन प्रतिदिन बढ़ने की बात सुनकर उस नायिका से मिलने की उत्कण्ठा जागृत होती है । इस प्रकार यहाँ प्रधान रूप से कवि ने इसी प्रतीयमान अर्य को उपनिबद्ध किया है । )
विचित्रमेव रूपान्तरेण प्रतिपादयति-स्वभाव इत्यादि । यत्र यस्मिन् भावानां स्वभावः स्वपरिस्पन्दः सरसाकूतो रसनिर्भराभिप्रायः पदार्थानां निबध्यते निवेश्यते । कीदृशः–केनापि कमनीयेन वैचित्र्येणोपबृंहितः, लोकोत्तरेण हृदयहारिणा वैदग्ध्येनोत्तेजितः । 'भाव' शब्देनात्र सर्वपदार्थोऽभिधीयते, न रत्यादिरेव । उदाहरणम्
विचित्र ( माग ) को ही दूसरे ढंग से प्रतिपादित करते हैं-स्वभावइत्यादि ( ४१वीं कारिका के द्वारा)। जहाँ अर्थात् जिस ( मार्ग ) में भाव अर्थात् पदार्थों का, सरसाकृत अर्थात् रस के अतिशय से युक्त अभिप्राय वाला स्वभाव अर्थात् अपनी ही सत्ता का निबन्धन अर्थात् वर्णन किया जाता है। कैसा-(स्वभाव )--किसी रमणीय वैचित्र्य से वृद्धि को प्राप्त कराया गया अर्थात् अलौकिक एवं मनोहर विदग्धता से उत्सर्ग को प्राप्त । 'भाव 'शब्द के द्वारा यहाँ सभी पदार्थों का ग्रहण होता है केवल रति आदि भावों ही का नहीं । ( इसका ) उदाहरण ( जैसे )
क्रोडासु बालकुसुमायुधसङ्गताया यत्तत् स्मितं न खलु तत् स्मितमात्रमेव । आलोक्यते स्मितपटान्तरितं मृगाच्या
स्तस्याः परिस्फुरदिवापरमेव किञ्चित् ॥ १०१ ॥ क्रीडाओं में ( या काम-केलि में ) बाल कामदेव से संयुक्त ( अर्थात् शैशवावस्था के बाद तुरत ही नये-नये काम के विकारों से युक्त ) उस मृगनयनी की जो वह मुस्कुराहट है वह केवल मुस्कुहाहट ही नहीं है, अपितु मुस्कुराहट रूपी वस्त्र से ढंकी हुई कोई अन्य ही वस्तु स्फुटित होती हुई सी दिखाई देती है ॥ १०१ ।।।
अत्र न ललु तत् स्मितमात्रमेवेति प्रथमार्धेऽभिलाषसुभगं सरसा. भिप्रायत्वमुक्तम् । अपरार्धे तु-हसितांशुकतिरोहितमन्यदेव किमपि परिस्फुरदावलोक्यत इति कमनीयवैचित्र्यविच्छित्तिः। __यहाँ पर "वह केवल मुस्कुराहट ही नहीं है" इस पूर्वार्द्ध में ( उस तरुणी का सम्भोग की) इच्छा से रमणीय सरस अभिप्राय से युक्त होना प्रतिपादित किया गया है। तथा उत्तरार्द्ध में "मुस्कुराहटरूपी वस्त्र से ढकी