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प्रथमोन्मेषः
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किसी विरहिणी नायिका की दूती उसके नायक से उसकी विरह व्यथा का निवेदन करती हुई कहती है कि ) तुम्हारे विरह न तो अश्रुजलों की धाराये ( ही ) उस ( नायिका ) के मुखचन्द्र की रमणीय सुषमा का अपहरण करती हैं ( और ) न ( विरहजन्य ) निःश्वास ( ही ) उसके बिम्ब ( फल ) के सदृश ( रक्तवर्ण) अधर की मनोहर छवि को दूषित करते हैं ( हाँ एक बात जरूर है कि उस ) कृशाङ्गी के गण्डस्थलों की, पके हुए लवली ( लता के पत्ते ) के लावण्य के साथ साम्य रखने वाली कोई ( न छिपाई जा सकने वाली अपूर्व ) कान्ति नित्य प्रति पुष्ट होती जाती है ॥ १०० ॥
भ
त्वद्विरह वैधुर्य संवरणकदर्थनामनुभवन्त्यास्तस्यास्तथाविधे महति गुरुसङ्कटे वर्तमानायाः - कि बहुना - बाष्पनिश्वास मोक्षावसरोऽपि न सम्भवति । केवलं परिणतलवलीलावण्यसंवादसुभगा कापि कपोलयो:कान्तिरशक्यसंवरणा प्रतिदिनं परं परिपोषमासादयतीति व्यतिरिक्तवृत्ति दूत्युक्तितात्पर्य प्रतीयते उक्त प्रकारकान्तिमत्त्वकथनं च कान्त कौतुकोत्कलिकाकारणतां प्रतिपद्यते ।
वाच्य
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यहाँ पर वाच्य से अतिरिक्त वृत्ति वाला ( व्यङ्गय रूप ) दूती के कथन का यह तात्पर्य प्रतीयमान ढग से सहृदयों के सम्मुख उपस्थित होता हैं कि तुम्हारे वियोग के कारण उत्पन्न अत्यन्त दुःख को आच्छादित करने ( असमर्थता रूप ) कष्ट का अनुभव करती हुई उस प्रकार के घोर सङ्कट में विद्यमान उस (नायिका) की, अधिक ( दुरवस्था का ) क्या ( वर्णन किया जाय; यही क्या कम है कि उसे ) आँसू गिराने एवं निःश्वास छोड़ने का भी ममय नहीं सम्भव होता ( अर्थात् हमेशा उसे भय लगा रहता है कि कहीं यह भेद कोई जान न ले कि वह तुम्हारी विरह व्यथा से अत्यन्त पीड़ित है । अतः वह न रोती है और न आहें ही भरती है । उन आहों को भीतर ही दबा लेती है तथा आँसू के घूंट पी जाया करती है हाँ, एक बात जरूर है । ) पके हुए लवकी ( पत्र ) के लावण्य के समान सुन्दर उसके कपोलों की छिपाई न जा सकने वाली कान्ति अत्यधिक परिपुष्ट होती जाती है । ( अर्थात् उसका चेहरा पीला होता जाता है, और इसे वह छिपा सकने में सर्वथा असमर्थ है । अतः वही आपकी विरह व्यथा को प्रकट करता है । ) ( इस प्रकार दूती द्वारा उस नायिका को ) उक्त प्रकार की कान्ति से युक्त होने का कथन प्रियतम के कौतूहल और उत्कण्ठा के कारण रूप में प्रतिष्ठित होता है । ( अर्थात् नायक को उसकी कपोलं की पीत कान्ति के
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