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प्रथमोन्मेषः
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पहुँचा दिए जाने के कारण, वैसा दूसरा स्वरूप उन्मीलित हुआ है जो कि प्रतीयमान रूप से इस अभिप्राय को व्यक्त करता है कि, (दूसरे ) हजारों अपने उचित स्वभाव से सुन्दर पदार्थों के विद्यमान रहने पर भी केवल वही ( रेगिस्तान ही ) किसी भी उदारचरित वाले ( व्यक्ति) की संज्ञा का भाजन बनने योग्य है ( दूसरे पदार्थ नहीं)।
वैसे इसका प्रतीकार्थ तो यह होगा-'पिपासा' के 'कष्टपूर्वक शान्ति होने वाली' इस विशेषण के द्वारा प्रतीयमान ( व्यक्ति ) की तीनों लोकों के राज्य की प्राप्ति से भी असन्तुष्टि का बोध होता है । 'राहियों द्वारा परित्याग' इस (वाक्य) उदारता के रहने पर भी उसका समुचित संविभाजन
सम्भव न होने से स्वयं लजाते हए से प्रार्थियों द्वारा ( उसके पास ) न • आने का बोध होता है। 'आश्रित वृक्षों एवं लताओं का सूख जाना' इस
(विशेषण) से उसके आश्रितों की उस प्रकार का संकट पड़ने पर भी केवल उसी पर आश्रित रहने का बोध होता है। (अर्थात् उसके परिजन संकट में उसे छोड़ कर दूसरे का आश्रय नहीं करते )। और इस प्रकार 'उस (प्रतीयमान व्यक्ति) का अपने भीतर सन्ताप पहले कहे गये अपने कुटुम्बियों को सन्तुष्ट करने में असमर्थ होने के कारण है न कि अपने अल्प भोग की लालच से' यह बात प्रतीत होती है। उत्तरार्द्ध के द्वारा उस प्रकार के दुर्विलास के विद्यमान रहने पर भी उस ( उस व्यक्ति की) परोपकारविषयक प्रशंसापात्रता को उन्मीलित किया गया है। - अपरत्रापि विधिविहितसमुचितसमयसम्भवं सलिलनिधिभजन निजोदयन्यक्कृतनिखिलस्वपरपक्षः प्रजापतिप्रणीतसकलपदार्थप्रकाशन• व्रताभ्युपगमनिर्वहणाय विवस्वान् स्वयमेव समाचरतीत्यन्यथा कदाचि. दपि शशाङ्कतमस्तारादीनामभिव्यक्तिर्मनागपि न सम्भवतीति कविना नूतनत्वेन यदुनिखितं तदतीवप्रतीयमानमहत्त्वव्यक्तिपरत्वेन चमत्कारकारितामापद्यते । ___दूसरे ( उदाहरण ) में भी विधि-विधान के अनुरूप ( अपने ) समयानुसार होने वाले ( सूर्य के ) सागर में डूबने को कवि ने जो इस नये ढंग से वोणत किया है कि अपने उदय से सारे के सारे अपने व शत्र के पक्ष को तिरस्कृत कर देने वाला सूर्य स्वयं ही विधिविहित समस्त पदार्थों के प्रकाशित करने के व्रतपालन का निर्वाह करने के लिए ( समुद्र में डूबने का) आचरण करता है नहीं तो कभी भी चन्द्रमा, अन्धकार और नक्षत्रादिक की थोड़ी भी अभिव्यक्ति नहीं सम्भव हो सकती' वह ( कवि का नवीन