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वक्रोक्तिजीवितम
(बोड़े से ) कणों के आधिपत्य के घमण्ड से गरजने वाले पामर जलधर तुम्हारे उपकार के लिए तैयार नहीं होते ॥ ६८ ।। ..
टिप्पणी-यहां पर कवि ने अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार को बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है मरुस्थल के माध्यम से वह प्रतीयमान रूप से किसी उस उदार व्यक्ति का वर्णन प्रस्तुत करता है जो कि निर्धन है किन्तु स्वाभिमानी है। थोड़ा-सा धन पाकर घमण्डी हो गए लोगों के द्वारा अपने को उपकृत नहीं करना चाहता, बल्कि स्वयं अन्य लोगों के द्वारा अपनी निर्धनता के कारण किए गये त्याग रूप अपमान को, अपने आश्रित स्त्री-पुत्रादिकों के कष्ट को, तथा उससे उत्पन्न अपने दुःख को सभी को सहन करने को तयार है। यथा वा
विशति यदि नो कञ्चित्कालं किलाम्बुनिधिं विधेः । कृतिषु सकलास्वेको लोके प्रकाशकतां गतः । कथमितरथा धाम्नां धाता तमांसि निशाकरं
स्फुरदिदमियत्ताराचक्र प्रकाशयति स्फुटम् ।। ६६ ॥ विधाता की समस्त कृतियों में लोक में अकेला प्रकाशक प्रकाश को धारण करने वाला (सूर्य) कुछ समय यदि सागर में प्रवेश नहीं करता, तो भला फिर वह अन्धकार, चन्द्रमा एवं चमकते हुए इतने ( बड़े ) इस. नमत्र-समूह को स्पष्ट रूप से कैसे प्रकाशित करता ॥ १६ ॥
अत्र जगद्गर्हितस्यापि मरोः कविप्रतिभोल्लिखितेन लोकोत्तरौ. दार्यधुराधिरापणेन ताहक स्वरूपान्तरमुन्मोलितं यत्प्रतीयमानत्वेनोदारचरितस्य कस्यापि सत्स्वप्युचितपरिस्पन्दसुन्दरेषु पदार्थसहस्रेषु तदेव व्यपदेशपात्रतामहतोति तात्पर्यम् । अवयवार्थस्तु-दुःशमयेति 'तृड्'-विशेषणेन प्रतीयमानस्य त्रैलोक्यराज्येनाप्यपरितोषः पर्यवस्यति । अध्धगैर्वर्जनमित्यौदार्येऽपि तस्य समुचित संविभागासम्भवादर्थिमिर्लजमानैरपि स्वयमेवानभिसरणं प्रतीयते। संश्रिनदुमलताशाष इति तदाश्रितानां तथाविधेऽपि सङ्कटे तदेकनिष्ठताप्रतिपत्तिः । तस्य च पूर्वोकस्वपरिकरपरितोषाक्षमतया तापः स्वात्मनि न भोगलवलील्ये. नेति प्रतिपद्यते । उत्तरार्धन-तादृशे दुर्विलसितेऽपि परोपकारविषयत्वेन श्लाषास्पदत्वमुन्मीलितम् । ___ यहाँ (पहले उदाहरण में ) संसार में कुत्सित / रूप से प्रसिद्ध ) भी रेगिस्तान का, कविशक्ति द्वारा वणित लोकातिशायी औदार्य की चरम सीमा को