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प्रथमोन्मेषः
अर्थात् उसी प्रकार ( जिस प्रकार कि रमणी के शरीर को कटककुण्डलादि अलंकारों से ढँककर विभूषित किया जाता है उसी प्रकार ) जहाँ उपमा आदि अलंकारों के द्वारा ( अलंकार्य को ) प्रकाशित किया जाता है । हुन उपमा आदि अलंकारों का शोभा के लिए निबन्धन इस प्रकार होता है । कि ये उपमा आदि अलंकार अपनी शोभातिशय के अन्दर स्थित अर्थात् अपनी कमनीय कान्ति के अन्तर्गत अलङ्कायं अर्थात् अलंकृत करने योग्य ( वस्तु ) को प्रकाशित करते हैं। तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि उन अलंकारों की महिमा भी उस प्रकार से शोभित होती है कि अत्यन्त उद्रित स्थिति वाले उस ( अलंकार ) सौन्दर्यातिशय से अन्तर्भूत अलंकार्य प्रकाशित होता है । जैसे
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कोई भी रामचन्द्र
आर्यस्याजिमहोत्सवव्यतिकरे नासंविभक्तोऽत्र वः कश्चित् काप्यवशिष्यते त्यजत रे नक्तञ्चराः संभ्रमम् । भूयिष्ठेष्वपि का भवत्सु गणनात्यर्थ किमुत्ताम्यते तस्योदारभुजोष्मणोऽनवसिता नाचार सम्पत्तयः ॥ ६३ ॥ हे निशाचरो ! तुम सब आर्य ( श्रीराम ) के समररूप महोत्सव के सम्बन्ध में ( कि हमें शायद हिस्सा न मिल पाये इस प्रकार की ) जल्दबाजी को छोड़ दो, ( क्योंकि ) यहाँ तुम में से कहीं भी बिना हिस्सा पाये शेष नहीं रहेगा ( अर्थात् सब को मारेगें ) । यदि तुम समझते हो कि तुम्हारी संख्या बहुत है कैसे सबको हिस्सा मिलेगा, तो ग्रह समझना ठीक नहीं क्योंकि ) बहुत से होने पर भी तुम्हारी क्या गणना है ( तुम लोग बेकार ही ) अत्यधिक उतावले क्यों हो रहे हो, ( सभी को हिस्सा मिलेगा क्योंकि ) विशाल भुजाओं की गर्मी से युक्त उन राम के न तो अभी ( राक्षसवध रूप ) आचार समाप्त हुए हैं ( अर्थात् राक्षसबध करने में कृपणता नहीं आई है) और न ( राक्षसवध करने की शक्तिरूप ) सम्पतियाँ ही ( समाप्त हुई हैं अर्थात् उनके पास राक्षसवध करने की अथाह शक्ति विद्यमान है | अतः आप लोग घबड़ायें नहीं सबका वध होगा ॥ ६३ ॥
अत्राजे महोत्सवव्यतिकरत्वेन तथाविधं रूपणं विहितं यत्रालङ्कार्यम् "आर्यः स्वशौर्येण युष्मान् सर्वानेव मारयति" इत्यलङ्कारशोभातिशयान्तर्गतत्वेन भ्राजते । तथा च कश्चित् सामान्योऽपि कापि वयस्यपि देशे नासंविभक्तो युष्माकमवशिष्यते । तस्मात् समरमहोत्सवसंविभागलम्पटतया प्रत्येकं यूयं सम्भ्रमं गणनया वयं भूयिष्ठा इत्यशक्त्यानुष्ठानतां यदि मन्यये तदस्य
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