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प्रथमोन्मेषः
अर्थ अर्थात् अभिधान एवम् अभिधेय, उन दोनों से बन्धुर अर्थात् मनोहर । और किस प्रकार का-बिना (किसी.) प्रयत्न से निष्पन्न थोड़े ही मनोहर अलङ्कारों से युक्त अयत्न अर्थात् बिना किसी क्लेश के ( स्वाभाविक रूप से ही) विहित अर्थात् ( निष्पन्न ) किया गया जो स्वल्प अर्थात् थोड़ा सा ही मनोहारि अर्थात् हृदय को आह्लादित करनेवाला विभूषण अर्थात् अलङ्कार है जहाँ वह ( हुआ ) तथोक्त ( सुकुमार मार्ग)। यहाँ स्वल्प शब्द का प्रयोग प्रकरणादि की अपेक्षा रखने वाला है केवल वाक्यपरक ही नहीं। ( अर्थात् प्रत्येक श्लोक में कुछ अलङ्कारों का प्रयोग हो ऐसी कोई अपेक्षा नहीं है अपितु सम्पूर्ण प्रकरण में अयत्न निष्पादित सहृदयहृदयहारी स्वल्प अलङ्कारों की अपेक्षा होती है । ) ( इसका ) उदाहरण जैसे
बालेन्दुवक्राण्यविकाशभावाद् बभुः पलाशान्यतिलोहितानि । सद्यो वसन्तेन समागतानां नखक्षतानीव वनस्थलीनाम् ।। ७५ ।।
( पूर्ण ) विकाश न ( प्राप्त.) होने के कारण बालेन्दु ( द्वितीया के चन्द्रमा ) के सदृश टेढ़े, अत्यधिक लोहित पलाश ( ढाक के फूल ), वसन्त ( ऋतुरूप नायक ) के साथ तत्काल समागम किए हुए वनस्थलियों (अर्थात् तद्रूप नायिकाओं) के नखक्षतों की भांति शोभायमान हुए ॥ ७५ ।।
अत्र 'बालेन्दुवक्राणि' 'अतिलोहितानि' 'सद्यो वसन्तेन समा. गतानाम्' इति पदानि सौकुमार्यात् स्वभाववर्णनामात्रपरत्वेनोपात्तान्यपि 'नखक्षतानीव' इत्यलंकरणस्य मनोहारिणः वलेशं विना स्वभावोद्भिन्नत्वेन योजनां भजमानानि चमत्कारितामापद्यन्ते ।
यहाँ पर 'बालेन्दुवक्राणि' (बाल चन्द्रमा के समान टेढ़े ) 'अतिलोहितानि' ( अत्यधिक रक्तवर्ण के ) एवं 'सद्यः वसन्तेन समागतानाम्' ( तत्काल वसन्त के साथ समागम करने वाली) ये पद सुकूमार होने के कारण केवल स्वभाव का वर्णन करने के लिये प्रयुक्त होकर भी बिना किसी प्रयत्न के स्वाभाविक रूप से 'नखक्षतानीव' अर्थात् नखक्षतों के समान इस ( पद में प्रयुक्त उपमारूप ) मनोहर अलङ्कार की योजना को धारण करते हुए चमत्कारपूर्ण हो गये हैं । ( अर्थात् यद्यपि 'बालेन्दुवक्राणि' इत्यादि पद पलाशपुष्प की स्वाभाविकता का ही प्रतिपादन करते हैं फिर भी जो नखक्षत से उसकी उपमा दी गई है उसके साथ पूर्णरूपेण योजना रखते हुए, अर्थात् नखक्षत भी टेढ़ा एवं खून आ जाने के कारण लाल होता है, साथ ही ऐसी सम्भावना नायक-नायिका के समागम काल में ही होती